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समालोचना-समुच्चय

विपत्तिरूपी ग्रीष्म की भीषण ऊष्मा से तपे हुए मेरे मन को कहीं भी, किसी तरह, चैन नहीं। टका मेरे पास नहीं; धन-धान्य सभी नष्ट होगया। पूर्व-जन्मों में उपार्जित दुर्वृत्तियाँ, इस जन्म में, अब अपना कुफल ख़ूब ही दिखा रही हैं। इन आपत्ति-परम्पराओं के कारण अन्धा हुआ मैं दीर्घ-दुःख-रूपी अन्धकूप में गिर गया हूँ। वहाँ से मुझे निकालने का सामर्थ्य आपके सिवा और किसी में नहीं। क्योंकि आप करुणा-सागर हैं―आप दया के समुद्र हैं। आपको छोड़ कर और किससे मैं अपने उद्धार के लिए प्रार्थना करूँ। हे भव, इन घोर विपत्तियों से मेरा छुटकारा यदि कोई कर सकता है तो एक-मात्र आप ही कर सकते हैं।

जानुभ्यामुपसृत्य रुग्णचरणः को मेरुमारोहति
श्यामाकामुकबिम्बमम्बरतलादुप्लुत्य गृहति कः।
को वा बालिशभाषितैः प्रभवति प्राप्तुं प्रसादं प्रभो-
रित्यन्तर्विमृशन्नपीश्वर बलादार्त्यास्मि वाचालितः॥

क्या कभी किसी ने किसी लँगड़े को घुटनों के बल चल कर सुमेरु-पर्वत के शिखर तक पहुँचते देखा है? अथवा क्या कभी किसी ने किसी यः कश्चित् मनुष्य को उछल कर आकाश से निशानारी के कामुक चन्द्रमा के बिम्ब को खींच लाते देखा है? किसी ने नहीं। यह बात सम्भव ही नहीं। इसी तरह मैं मूढ़ मनुष्य इन स्तोत्रों में किये गये मूर्खतापूर्ण बकवाद से यदि आपको प्रसन्न करने―आपका प्रसाद पाने―की,चेष्टा करूँ तो मेरी इस चेष्टा के भी सफल होने की सम्भावना नहीं। हे ईश्वर, मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ। मैं जानता हूँ कि इस तरह के नीरस वाक्य-विलास किं वा कोरे प्रलाप से मैं आपको प्रसन्न नहीं कर सकता। पर करूँ तो क्या करूँ। मैं वेदनाओं से विकल हो रहा