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भारतीय चित्रकला


स्वीकार कर लिया। उसने तीन दिन बाद आने की अवधि नियत कर दी। इसका सङ्केत उसने तीन ही बार न, न, न कह कर कर दिया। इसका कारण भी उसने, अपने को नवकुसुमित कह कर, प्रकट कर दिया। सच पूछिए तो यह दूसरा अर्थ उन्हीं संस्कृत-हृदयों के ध्यान में आ सकता है जिनको परमात्मा ने सरसता और सहृदयता प्रदान की है।

चित्रों के विषय में भी यही बात चरितार्थ है। एक प्रवासी पति ने अपनी पत्नी के पास अपना चित्र भेजा। उसे देख कर उसका नन्हा सा, तीन वर्ष का बच्चा, सिहर उठा। वह अपनी माँ की गोद में यह कह कर छिप रहा कि बाबा गुस्से में हैं। और सचमुच वह चित्र उसी भाव का व्यञ्जक था।

सुनते हैं, एक स्त्री के चित्र में किसी भी अङ्ग का विशेष उपचय न दिखाया जाने पर भी, चित्र-कला के एक मर्म्मज्ञ ने, केवल उसके मुखगत भावों से उसकी सगर्भावस्था ताड़ ली थी।

बनारस में एक रईस साहब चित्रकला के ज्ञाता हैं। उनके पास चित्रों का संग्रह भी अच्छा है। एक दिन वे हमें अपने कुछ चित्र दिखाने लगे। हम ठहरे इस कला में बिलकुल ही कोरे। अतएव दो चार मामूली आलोचनात्मक बातों से उनकी प्रशंसा करके हम चुप हो रहे। इस पर जब उन्होंने कुछ चित्रों की ख़ूबियाँ बयान कींं तब हम स्तब्ध हो गये। हमें तब जाकर कहीं यह अच्छी तरह मालूम हुआ कि चित्रों का पारखी होने के लिए कुछ लोकोत्तर गुणों की जो आवश्यकता बताई जाती है वह सर्वथा सच है।

भारत में सङ्गीत, चित्रकला और मूर्ति-निर्माण का प्रारम्भ कब से हुआ, यह तो ठीक ठीक नहीं बताया जा सकता; पर वैदिक