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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/३६

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समालोचना-समुच्चय


समय में भी उनका अस्तित्व अवश्य था। सामगान होना और वेदों में “न तस्य प्रतिमा अस्ति" आदि मन्त्रों का पाया जाना, इसका प्रमाण है। “कवि” शब्द तो वेदों में अनेक स्थलों पर आया है। रामायण, महाभारत तथा पुराणों में इन कलाओं के नामोल्लेख ही नहीं, इन विषयों के ग्रंथों और ग्रंथकारों तक का उल्लेख है। किसी किसी में तो इसके लक्ष्य-लक्षण भी पाये गये हैं। काव्यों और नाटकों की तो कुछ पूछिए ही नहीं। चित्रों, चित्रफलकों और देवपाटों के लम्बे लम्बे वर्णन तक उनमें हैं। सङ्गीत, मूर्ति-निर्म्माण और चित्रकला के विषय में, पीछे तो, सैकड़ों ग्रंथ बन गये थे। उनमें से अधिकांश, अनेक कारणों से, नष्ट हो गये। अवशिष्टों में से कुछ छपकर प्रकाशित हो भी गये हैं और कुछ शायद प्राचीन संग्रहालयों में पड़े, अब तक सड़ रहे होंगे।

बौद्धों और जैनियों की बड़ी ही सुन्दर मूर्तियाँ तो अब भी, हज़ारों की संख्या में, यहाँ मौजूद हैं। आततायियों के द्वारा कितनी नष्ट हो गई, और कितनी विदेशों में पहुँच गई, यह बताना कठिन है। मूर्तियाँ बहुत दिनों तक रह सकती हैं। जब तक वे स्वयं स्थानभ्रष्ट होकर विकृत नहीं हो जाती या जब तक तोड़ी नहीं जाती तब तक बनी रहती हैं। इसी से ये बहुत बड़ी संख्या में अब तक पाई जाती हैं और भारतीय मूर्ति-निर्म्माण-कला की ऊर्जितावस्था की गवाही दे रही हैं। पर चित्र बहुत समय तक―हजारों वर्ष तक―नहीं रह सकते। वे प्रायः कागज़ और कपड़े (कनवास याने किरमिच) तथा दीवारों पर बनते हैं। इसी से शीघ्र बिगड़ जाते, फट जाते और रङ्गो की असलियत को खो देते हैं। ग्रंथों की नक़ल तो कोई भी लिपिकार कर सकता है। अतएव उनका अत्यधिक ह्रास या नाश भारत में नहीं हुआ। पर चित्रों की नक़ल करना सब का काम