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भट्टिकाव्य
भट्टिकाव्य
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इस काव्य की गणना प्रसिद्ध काव्यों में है। इसके कर्त्ता का नाम भट्टि है। इसीलिए यह अपने कर्त्ता ही के नाम से प्रसिद्ध है। इस कवि के पिता का नाम श्रीस्वामी था। बलभी-नामक नगरी में श्रीधरसेन नाम का एक राजा हो गया है। उसी के राजत्वकाल में, उसी को राजधानी में रहते हुए, भट्टि ने इस काव्य की रचना की थी। यह बात उसने स्वयं ही अपने काव्य-ग्रंथ में लिखी है। यथा―

काव्यमिदं विहितं मया बलभ्यां
श्रीधरसेननरेन्द्रपालितायाम्।
कीर्तिरतो भवतान्नृपस्य तस्य
क्षेमकरः क्षितिपा यतः प्रजानाम्॥

यह कवि सिद्धान्तकौमुदी के प्रणेता प्रसिद्ध वैयाकरण भट्टोजी दीक्षित से पुराना है। क्योंकि दीक्षित जी ने अपनी "कौमुदी" में भट्टि का यह श्लोक उद्धृत किया है―

आ: कष्टं बत ही चित्रं हूँ मातर्दैवतानि धिक्।
हा पितः क्वासि हे सुभ्रु बह्वेवं विललाप सः॥

डफ की लिखी हुई "कोनोलाजी आव् इंडिया" (Chronology of India) नाम की पुस्तक के अनुसार बलभी में श्रीधरसेन या धरसेन नाम के चार राजे हो गये हैं। पहला ४९५ ईसवी के लगभग और चौथा ६५१ ईसवी के लगभग। इन्हीं चारों में से किसी एक के समय इस काव्य की रचना हुई है। अतएव इस काव्य को अस्तित्व में आये कम से कम १२०० वर्ष हुए।