यह ग्रंथ काव्य होकर भी व्याकरण है। इस दृष्टि से यह एक अद्भुत ग्रंथ है। ऐसा अन्य ग्रंथ संस्कृत-भाषा के साहित्य में हमारे देखने में नहीं आया। इसका परिशीलन करते समय काव्यानन्द की भी प्राप्ति होती है और व्याकरण के ज्ञान की भी प्राप्ति होती है। इस तरह के अभूतपूर्व ग्रंथ की रचना भट्टि ने क्यों की, इसका कारण पण्डित लोग, एक किंवदन्ती के रूप में, बताते हैं। उसे हम किंवदन्ती इसलिए कहते हैं, क्योंकि उसका लिखित प्रमाण इस काव्य में या कहीं अन्यत्र नहीं। कम से कम हमने उसे कहीं लिखा नहीं देखा। यह किंवदन्ती नीचे दी जाती है―
भट्टि ने अपने अल्पवयस्क पुत्र को व्याकरण पढ़ाने के लिए मुहूर्त निश्चित किया। ज्योंही वह समय आया त्योंही पिता-पुत्र के बीच से, कहीं जाता हुआ, एक हाथी निकल गया। इसे भट्टि ने बहुत बड़ा अपशकुन समझा। क्योंकि पुराने पण्डितों का ख़याल था कि अध्येता और अध्यापक के बीच से हाथी निकल जाने पर १२ घर्ष का अनध्याय मानना पड़ता है। इस परिपाटी को तोड़ने का साहस पण्डितवर भट्टि को न हुआ। वे सोच-विचार में पड़ गये। उन्होंने कहा कि व्याकरण ही सारे शास्त्रों की आँख है; बिना उसे पढ़े किसी भी शास्त्र में अच्छी तरह गति नहीं हो सकती। अब यदि लड़का, १२ वर्ष बाद, व्याकरण पढ़ना आरम्भ करेगा तो अच्छी तरह पढ़ न सकेगा; क्योंकि उम्र अधिक हो जाने पर व्याकरण के सदृश क्लिष्ट शास्त्र में यथेष्ट बुद्धि-प्रवेश नहीं हो सकता। डर है कि कहीं वह मूर्ख न रह जाय और यदि अभी इसे यह शास्त्र पढ़ाते हैं तो परिपाटी नष्ट होती है और हम लोकनिन्दा के पात्र होते हैं। इस दशा में उभयतः पाशा-रज्जु के बन्धन से बचने की एक युक्ति उन्हें सूझी। उन्होंने निश्चय किया कि मैं अब एक ऐसे काव्य की रचना करूँगा जिसके पाठ से काव्य-