गई। इस महाकवि के रचे हुए हरविलास नामक एक महाकाव्य और भुवनकोश नामक एक भूगोल का भी पता चला है। पर ये पुस्तकें अभी तक देखने को नहीं मिलीं। राजशेखर कवि कन्नोज के राजा महेन्द्रपाल के उपाध्याय थे। यह राजा ईसा के दसवें शतक के प्रारम्भ में (९१७ ईसवी में) विद्यमान था। अतपव राजशेखर का भी वही समय हुआ। राजशेखर अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। वे कविराज थे। अपने इस ग्रन्थ में उन्होंने कवियों की कई अवस्थाओं का वर्णन किया है और कविराज को महाकवि से बढ़ कर बताया है। राजशेखर की पत्नी अवन्तिसुन्दरी भी विदुषी थी। उन्होंने इस ग्रन्थ में कई बार अपनी पत्नी का मत प्रकट किया है। राजशेवर के समय में बड़े घरों की स्त्रियाँ यथेच्छ विद्योपार्जन करती थीं। उन्होंने लिखा है―
पुरुषवत् योपितोऽपि कवयो भवेयुः। संस्कारो ह्यात्मनि समवैति न स्त्रैणं पौरुषं वा विभागमपेक्षते। श्रूयन्ते दृश्यन्ते च राजपुन्यो, महामात्यदुहितरो, गणिकाः, कौतकिभार्याश्च शास्त्रप्रहतबुद्धयः कवयश्च।
राजशेखर की इच्छा थी कि वे इस पुस्तक को १८ अधिकरणों में लिखें और उनमें काव्य-विषयक सभी बातों का उल्लेख करें। पर प्रस्तुत पुस्तक में केवल एक ही अधिकरण है। सम्भव है, अगले १७ अधिकरण लिखने के पहले ही वे मर गये हों, या वे किसी कारण नष्ट हो गये हों। खै़र। जो कुछ इस अधिकरण में है वह प्रायः सभी विलक्षण नहीं तो बहुतों के लिए अभिनव अवश्य ही है। इसकी अधिकांश बातें काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण आदि में नहीं। कवियों के भेदादि पर राजशेखर लिखने लगे तो कई अध्याय लिख डाले। अर्थाहरण पर दो अध्याय, पूरे के पूरे, लिख डाले। कल्पनाभेद, ऋतुभेद, शिष्यभेद, व्युतिपत्तिभेद,