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गायकवाड़ की प्राच्य-पुस्तक-माला

तदीयसुनूर्महनीयसेनः पराक्रमन्यक्कृतभीमसेनः।
शशास भूमीमथवीरसेनः प्रतापसंशोषितवीरसेनः॥१॥
नृपेण तेनाजनि क्रान्तिवीरः प्रचण्डमार्तण्डकुलैकवीरः।
यात्रासु पङ्कीकृतसिन्धुनीरः परावलीदीपशिखासमीरः॥२॥

[द्वितीय सर्ग]

आनन्दसन्दोहगलन्मरन्दे कालीचलापाङ्गमिलन्मिलिन्दे।
सानन्दवृन्दारकवृन्दवाद्ये वन्दे महादेवपदारविन्दे॥२७॥
कात्यायनीकेलिविलासलालं समुल्लसत्कुञ्जरचर्मचोलम्।
वक्षस्थलव्यालफणावचूलं चेतश्चिरं चिन्तय चन्द्रचूडम्॥२९॥

[पञ्चम सर्ग]

पार्थ पराक्रम―यह व्यायोग नाम का रूपक है। परमार प्रह्लादन-देव इसका कर्ता है। इसका सम्पादन पूवेक्ति चिमन लाल डी० दलाल महाशय, एम० ए०, ने किया है। आपने आरम्भ में एक अच्छा उपोद्घात, अँगरेज़ी में, जोड़ दिया है। इसका लेखक संवत १२२० और १२६५ के बीच विद्यमान था। वह आबू के परमार राजा धारावर्ष का छोटा भाई था। वह बहुत समय तक युवराज-पद पर भी अधिष्ठित था। इन परमारों की राजधानी चन्द्रावती नगरी थी। वर्तमान पालनपुर इसी प्रह्लादनदेव का बसाया हुआ है। यह राजकुमार कवि, कविवत्सल, सुभट और अच्छा विद्वान् था। सोमेश्वर कवि ने इसकी प्रशंसा में लिखा है―

देवी सरोजांसनसम्भवा किं कामप्रदा किं सुरसौरभेयी।
प्रह्लादनाकारधरा धरायामायातवत्येष न निश्चयो मे॥

धारावर्ष की आज्ञा से एक उत्सव में खेले जाने के लिए इसकी रचना प्रह्लादन ने की थी। इसकी कथा महाभारत के विराटपर्व से ली गई है । तुर्योधन विराट-राज की गायें हरण कर

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