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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/८९

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पृथिवी-प्रदक्षिणा

दुर्लभ ग्रंथ, बड़ी योग्यता से सम्पादित होकर, निकल चुके हैं और अब तक निकलते जा रहे हैं। गुप्त जी अध्यापक महाशय से मिलने गये और मिल कर बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ उनके पाठागार में उन्होंने संस्कृत की प्राचीन पुस्तकों का इतना अच्छा संग्रह देखा जितना कि भारत में शायद ही किसी विद्वान् के यहाँ हो। अध्यापक लैनमैन के पुस्तक-प्रकाशन-विषयक विशिष्ट व्यापार को देख कर गुप्त जी ने जो विचार व्यक्त किये हैं उनका कुछ अंश नीचे दिया जाता है―

“आपके (अध्यापक महाशय के) परिश्रम से जो संस्कृत के ग्रन्थ यहाँ से निकल रहे हैं वे बड़ी योग्यता से सम्पादित होते हैं और बड़े ही उपयोगी हैं। किन्तु इस उत्तम कार्य को देख कर मेरे ऐसे अल्पबुद्धि के मनुष्य की भी आँखों से आँसू निकल पड़े और मुझे एक ठंढी आह खींचनी पड़ी। क्यों? इसी लिए कि जो काम हमारे देशी विद्वानों के करने का है उसे विदेशी विद्वान् कर रहे हैं और हम बैठे चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। हा! हमारे प्रातःस्मरणीय विद्यावारिधि विद्वानों में इस ओर क्यों इतनी उदासीनता है, यह समझ में नहीं आता। मुझे रह रह कर यही ख़याल होता है कि हमारे विद्वान् जहाँ एक ओर अपने अपने विषय में अद्वितीय विद्वान्हैं वहाँ दूसरी ओर दासत्व ने, स्वतन्त्र विचार के अभाव ने, उन्हें उपयोगी कामों की ओर से इतना उदासीन बना दिया है जिसका ठिकाना नहीं। × × × × × ×

“मैं यह लिखे बिना इस प्रसङ्ग को नहीं छोड़ सकता कि अब समय आ गया है कि जहाँ एक ओर गुरुकुल के विद्वान् निरर्थक परिश्रम को छोड़ वास्तविक ज्ञानान्वेषण में लग जावे वहाँ दूसरी ओर काशी की विद्वत्परिषद से भी मेरी यह प्रार्थना है कि वह मतमतान्तर के झगड़ों को छोड़ केवल खोज-सम्बन्धी कार्य