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पृथिवी-प्रदक्षिणा

भू-मण्डल में किसी सागर में बहुत से हिम-खण्डों को बहते देख यदि अलङ्कारवत् उसका नाम दधि-समुद्र रख दिया हो तो क्या आश्चर्य?" पृष्ठ ९, १०।

इसी तरह आपने मधु-सागर और क्षीरसागर आदि की भी सार्थकता का अनुमान करके, बेचारे बहु-विनिन्दित पुराणों को, किसी हद तक, दाद दी है।

समाज-सुधार के विषय में गुप्तजी ने, अपनी पुस्तक के पृष्ठ ८१ और ८२ में, जो विचार प्रकट किये हैं वे सुधार के पक्षपातियों के विशेष मनन करने योग्य हैं। आपकी राय है कि आँखें बन्द करके समाज-सुधार की चेष्टा न करनी चाहिए। विवेक से काम लेना चाहिए। मनमाना ऊधम मचाने (License) का नाम सुधार नहीं है। समाज-सुधारक कान्फरेंसों के―

“प्रधान वक्ताओं में, जो टेबुलतोड़ व बेंच-फोड़ वक्ता कहे जाते हैं, ऐसे लोगों की ही संख्या अधिक मिलेगी जिनका निज का चरित्र अनुकरणीय नहीं पाया जायगा"। x x x x “रत्नों में लगी हुई गर्द के झाड़ने की आवश्यकता है, न कि उनके फेंकने की x x x x सुधारकों को चाहिए कि समाज की स्थिति में उलट-फेर कऱने के पूर्व भली भाँति विचार के काम करें। केवल कुछ प्रचलित शब्दों के आधार पर ही न चल दें। जैसे-‘हिन्दुयों के चौके ने चौका लगा दिया',―‘सङ्ग खाने से प्रेम बढ़ता है',-‘नौ कनौजिए तेरह चूल्हे',―‘अनमिल विवाह से प्रेम नहीं बढ़ता',―‘छुवाछूत बेहूदगी है', इत्यादि। इन उपर्युक्त वाक्यों को ज़रा गौर से देखने से ज्ञात होगा कि ये केवल बेहूदगियों पर ही नहीं बने हैं। इनकी तह में समाज निर्माण-शास्त्र तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी गहरे नियमों को जड़ पड़ी है। यद्यपि आधुनिक समय में इनका अत्यन्त