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सम्पत्ति-शास्त्र।

जिस परिमारा में पर्च बढ़ेगा उस परिमाया में आमदनी न बढ़ेगी। जिस खेत में रुपये की याद डाली जायगी उसमें उतनी स्वाद के दाम, और डालने को मजदूरी के बराबर सामदनी न बढ़ेगी। इधर खाने वाले भो ज़ियादहः । फल यह होगा कि अनाज महंगा हो जायगा । इसपर भी यदि अनाज देशान्तर को रवाना होगा ना उसका "स्टाक"-उसका संग्रह-और भी कम हो जायगा । आज कल हिन्दुस्तान में यही हो रहा है। इसी से अनाज दिनों दिन महंगा होता जाना है। परती ज़मीन जोतने से खर्च कढ़ता है, और सर्च बढ़ने से अनाज महंगा होना है।

कोई शायद यह समझे कि अनाज महंगा होने से किसानों को मुनाफा होता दोगा । या भ्रम है। जमीन का लगान कितना देना पड़ता है, इसका स्मरणा होते ही बिचारवान् प्राद रोंगटे खड़े हो जाते हैं। फिर, जहाँ इस्तमरारी धन्दोवस्त है या ब्राड़कर, और प्रान्तों में कहाँ दस वर्ष चाद, कहीं बीस वर्ष बाद, कार नीस वर्ष बाद नया वन्दोवस्त होता है और लगान चढ़ जाता है। इसने चचार किसानों को और भी आफ़तों का सामना करना पड़ता है--उनकी आमदनी और भी कम हो जाती है । अनाज पैदा करने में जो ग्यच पड़ता है उसके बोझ से वे बिलकुल ही दब जाते हैं । मुनाफ़ा क्या उनको टोगा याक । भुनाफा होता तो पया ये भूयो मरते ? अनाज महंगा होने से किसानों हीं पर ग्राफ़त नही पाती: किन्तु मेहनत मजदूरी करने वाले और लोगों पर भी आती है। यही नहीं, सभी लोगों पर उसका असर पड़ता है। क्योंकि गक ने यह देश कृपि-प्रधान ठहरा, दूसरे

अनाज एक ऐसी चीज़ है कि राजा-प्रजा सब की मागा-रक्षा उसीसे होती है । उसको जब यह दशा है तब पूंजी का बढ़ना एक प्रकार असम्भव है । श्योंकि ग्वती से कुछ लाभ होता नहीं और दुसर उद्यम-रोज़गार-लोग करते नहीं। कहीं सी दो सौ प्रादमियों में एक साध ने किया भी तो यह करना नहीं कहलाता। फिर पूंजी कैसे बढ़ सकती है? यदि किसी की इच्छा हुई भी कि वहें कोई उद्यम धन्धा कर तो पूंजी के बिना उसको इच्छा मन की मनहीं मैं रह जाती है। अतएव इस देश की दशा यदि निकृष्ट होजाय तो क्या आश्चर्य ! बर लिखने का मतलब यह कि खर्च बढ़ाने से कुछ चीज़ों की आमदनी बढ़ती जार है । पर अवस्था-विशेप में आमदना के हिसाब से खर्च