पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९२
सम्पत्ति-शास्त्र।

लिए फिर अगली फसल तक ठहरना पड़े । जितनाहाँ लोग इस तरह का माल माँगते हैं उतनाही बनता है। माल बेचने और बनानेवालों में चढ़ा- ऊपरी भी उतनीही होती है। यथासम्भव सब अपने अपने माल को सस्ते भाव बेचना चाहते हैं। परन्तु उत्पादन-व्यय का सचका खयाल रखना पड़ता है। जहां तक उनका नर्च निकल आता है तहाँ तक भाव कम करते जाते हैं, आगे नहीं। यदि भाव यहां तक गिर जायगा-यहाँ तक कीमत कम हो जायगी-कि खर्च भी न निकल लके तो लोग उस रोजगार ही को बन्द कर देंगे। इससे संग्रह फिर कम जायगा और कीमत चढ़ने लगेगी।

कपड़े इत्यादि जो चीजें कलों से बनाई जाती हैं उनके विषय में एक बात याद रखने लायक है । वह यह कि ऐसो चीजों की उत्पत्ति, खर्च के हिसाब से अधिक होती है । अर्थात् उनकी तैयारी में खर्च कम पड़ता है। इसीसे उनकी कीमत भी कम होती है। जहाँ तक कीमत से सम्वन्ध है, हाथ से बना हुआ कपड़ा कभी कलों से बने हुए कपड़े की बराबरी नहीं कर सकता। क्योंकि उत्पन्ति का सर्च जितनाहीं अधिक होता है, कीमत उतनीही अधिक बढ़ती है। कल्पना कीजिए कि आपको ढाके की मलमल का एक थान दर- कार है। उसमें जो राई लगी है उसकी कीमत बहुत होगी तो दो रुपये, अधिक नहीं। पर उसे हाथ से तैयार करने में मेहनत बहुत पड़ती है । इसीसे कीमत ज़ियादह देनी पड़ती है। मेहनत ही के हिसाब से उसकी कीमत १०, २०, ३०, था ४० रुपये आपको देने पड़ेंगे । पर यही थान यदि किसी पुतलीघर में कलों की सहायता से बनेगा तो बहुतही थोड़ी लागत में तैयार होगा। अतएव कीमत भी उसकी कम पड़ेगी। रेल के यजिन को देखिए । जो बोझ हजार आदमी लगने से भी नहीं होया जा सकता वही यजिन की सहायता से, सैकड़ों कोस दूप.कुछही घंटों में पहुँच जाता है ! चीज़ों की कीमत प्रायः मजदूरी हो के कारण बढ़ती है। प्रतगत सस्ती चीजें तभी मिल सकती है, और उनका संग्रह तभी बढ़ सकता है, जन कलों से काम लिया जाय। जितनाहीं बड़ा कारखाना होगा, और जितनाही अधिक कलों से काम लिया जायगा, उतनाहीं माल अधिक तैयार होगा और उतनीही लागत भी कम लगेगी।

भारतवर्ष की ज़िन्दगी खेती से ही है। पर खेती से उत्पन्न हुई चीज़ों का संग्रह बढ़ाने में साथ ही साथ खर्च भी अधिक पड़ता है। फिर, खेती