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रुपये की कीमत ।


क्या हुआ ? यही कि रुपये की कीमत दूनी हो गई है और बाकी सब चीज़ों की कीमत आधी रह गई है ! अब कल्पना कीजिए कि किसी देश की आबादी पूर्ववत है और माल भी पहले हो का इतना तैयार होता है । पर बाहर से इतनी चांदी आ गई कि पहले की अपेक्षा रुपये की संख्या डेवढ़ी हो गई। इस दशा में मजदूरों की मजदूरी और माल की क़ीमत ज़रूरही अधिक हो जायगी । क्योंकि चाँदी का मोल, अर्थात् अदलाबदल करने का सामर्थ्य, पहले से ५० फी सदी कम हो गया है। इससे स्पष्ट है कि यदि और कोई वाधक बाते' न हो तो, सिक्के की धातु अधिक हो जाने से उसका माल, अर्थात् उसका क्रय-विक्रय-सामर्थ्य, ज़रूर कम हो जाता है । इन दोनों उदाहरणों से यह निर्विवाद सिद्ध है कि रुपये की भी क़ीमत होती है और वह आमदनी और स्वप के ही नियमों के अधीन रहती है।

जितने देश हैं सब में पहलेहो से यह बात निश्चित हो जाती है-पहले ही से इस विषय का कानून बना दिया जाता है कि कितने सोने या कितनी चाँदी के कितने सिकं बनाये जायेंगे । उदाहरण के लिए इंगलैंड में ४० पौंड सोने के १८६९ सिके गढ़े जाते हैं। ये सिक्के " साबरन " कहलाते हैं। इस हिसाब से इन १८६९ सिक्कों को मालियत ४० पौड सोने को मालियत के बराबर हुई। अथवा यो कहिए कि उनका कोमत ४० पौंड सोना हुआ । अब पौंड सोने के यदि १८६९ मामूली टुकड़े किये जायें तो एक एक टुकड़ा एक एक सावरन के बराबर हो । अर्थात् दोनों की कीमत तुल्य हो । परन्तु सिके हमेशा व्यवहार में आते हैं, एक हाथ से दूसरे में जाया करते हैं । इससे वे घिस जाते हैं और उनका वज़न कानूनो बज़न से कम हो जाता है । टकसाल से निकलने पर उनका जो वजन था यह नहीं रहता । वज़न को इस कमी पर लोगों का ध्यान कम जाता है । चज़न में कुछ कम हो जाने पर भी पेसे सिक्के लेन देन में बराबर आते हैं १६ आने के रुपये में कोई १५, आने भर चाँदो रहती है । अब यदि घिसते घिसते १३ ही आने भर चाँदी रह जाय तो लेन देन के वक्त इस कमी का खयाल लोग नहीं करेंगे। वे हर रूपये को परख कर और तोल कर यह नहीं देख लेते कि उसमें कानून को रू से जितनी चाँदी होनी चाहिए उतनी है या नहीं । फल यह होता है कि ऐसे सिके बहुत दिनों तक चला करते है । परन्तु यदि कोई आदमी ऐसे सिक्कों को चाँदी से बदलने जाय तो उनके

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