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मालगुजारी।


अंगरेजी राज्य के पहले बंबई प्रान्त की आबादी कितनी थी और कितने रकबे में खेती होती थी, इसका ठीक ठीक पता नहीं लगता। और बिना इसके तब की और अब की मालगुजारी का परस्पर मुकाबला भी ठीक तौर पर नहीं हो सकता। पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि पहले की अपेक्षा अंग- रंजी राज्य में लगान को शरह अधिक है। उस जमाने में हर साल फसल देख कर यह कृत लिया जाता था कि कितना अनाज पैदा होगा। बस उसी का चौथाई मालगुजारो के रूप में मजा से लिया जाता था। यह नहीं कि एक दफे लगान बांधा जाय और फिर चीस पच्चीस वर्ष तक वही लिया जाय। संभव है बन्दोवस्त के साल फ़सल बहुत अच्छी हो। अतएव उसकी पैदावार के हिसाब सं मालगुजारी बंध जान से किसी कारण से फसल खराब हो जाने पर भी, किस तरह रैयत या ज़मीदार उतनीही माल- गुजरी दे सकेगा ? रिआया तो यह चाहती ही है कि जितनी और जिस तरह उसे अंगरेजी राज्य के पहले मालगुजारी देनी पड़ती थी उतनी ही और उसी तरह अब भी उससे ली जाय। फिर क्यों नहीं गवर्नमेंट वैसा करती ?

सारांश यह कि स्वदेशो या विदेशी, जितने इस देश के हितचिन्तक है, सध ने इस बात को सप्रमाण सावित कर दिया है कि जो मालगुजारी सर- कार रैयत और ज़मीदारों से लेती है, बहुत है। इस कारण प्रजा को बहुत दुःख भोगना पड़ता है। उनके पास कुछ भी नहीं बचता। फल यह होता है कि फ़सल ज़रा भी वराब हो जाने से उन्हें भूखों मरने की नौबत आती है। लार्ड कर्जन के ज़माने में प्रजा की तरफ से इस विपय में बहुत कुछ लिखा पढ़ी हुई। बहुत कुछ आवेदन निवेदन किया गया। बहुत कुछ पूजा-प्रार्थना की गई कि मालगुजारी कम की जाय। पर लाट साहब ने प्रज्ञा की न सुनी। आपने प्रजा-पक्ष के आवेदनों का उत्तर १८ जनवरी १९०२ के "गैजट आव् इंडिया" में प्रकाशित करके प्रजा की इच्छा पूर्ण करने से इनकार कर दिया। आपने अपने उत्तर में हर तरह से यही साबित करने की कोशिश की है कि सरकारी मालगुजारो ज़ियादह नहाँ। "वह लढ़ती किये बिना ही वसूल की जा सकती है और उसका वसूल किया जाना प्रज्ञा की असन्तुप्रता का कारण नहीं होता"।

परन्तु मजा की दुर्गति का जो सप्रमाण वर्णन इस परिच्छेद में किया गया है उसे पढ़ कर कोई समझदार आदमी गवर्नमेंट की बात को ठीक न