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सूद।

से क़र्ज़ लेते हैं वे अनेक प्रकार के रोज़गार करके बैंक से भी अधिक लाभ उठाते हैं। यदि धनवानों को रोज़गार करने की विद्या-बुद्धि होती तो वे अपने रुपये को किसी लाभदायक काम में लगा कर ख़ुद ही सारा लाभ उठाते। ऐसा न होने से इस देश की बड़ी हानि हो रही है। यहाँ की सम्पत्ति विशेष नहीं बढ़ती; बड़े बड़े व्यापार-व्यवसाय और कल-कारख़ाने नहीं चलते, और मज़दूरों की वेतन-वृद्धि भी यथेष्ट नहीं होती।

जिन कामों में अधिक सूद मिलता है वही काम इस देश में अधिक होते हैं। जिन व्यवसायों में सूद कम मिलता है वे बहुत कम किये जाते हैं। यही कारण है कि और और देश वालों के साथ चढ़ा-ऊपरी करने में यह देश समर्थ नहीं। और देशों में सूद की शरह कम और पूँजी अधिक है। इससे वहाँ वाले थोंड़े भी लाभ के काम में रुपया लगाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। यदि वे साल में रुपये पीछे एक आने की भी बचत देखते हैं तो बड़े बड़े कारखाने खोल कर और हज़ारों तरह के व्यवसाय कर के व्यवहार की च़ीजों से इस देश को पाट देते हैं। यहाँ वाले उनकी बराबरी नहीं कर सकते। सुद खाते हैं और पड़े रहते हैं। उधर विदेशी देश का धन लूट कर मन माना लाभ उठाते हैं।

जिन चीज़ों का व्यापार होता है—जो व्यावहारिक चीज़े एक जगह से दूसरी जगह और एक देश से दूसरे देश को भेजी जाती हैं—वे सब ज़मीन, नदी, तालाब, या समुद्र से ही पैदा होती हैं। यही चीज़ें पूँजी और परिश्रम के योग से अनेक रूपों में परिणत हो कर वाणिज्य-व्यापार की मूलाधार बनती हैं। जिस परिमाण में मनुष्य-संख्या बढ़ती है उस परिमाण में इन चीज़ों की वृद्धि नहीं होती। अर्थात् लोकवृद्धि के कारण आदमियों की ज़रूरतें तो बढ़ जातीं हैं, पर उसी परिमाण में व्यवहार की चीज़ों की वृद्धि नहीं होती। फल यह होता है कि ज़मीन का लगान बढ़ जाता है—अर्थात् परती पड़ी हुई ज़मीन जुतती चली जाती है। इसी बात को यदि दूसरे शब्दों में कहें तो इस तरह कह सकते हैं कि पहले को अपेक्षा अधिक ज़मीन जोती जाने से देश की सम्पत्ति और पूँजी की वृद्धि होती है। इस वृद्धि के कारण दिनों दिन सूद की शरह कम होती जाती है। अतएव यह कहना चाहिए कि सूद और लगान में परस्पर विरोध है। लगान बढ़ने से सूद कम हो जाता है। और यदि पूँजी कम होने से सूद की शरह बढ़ती है तो ज़मीन