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सम्पत्ति-शास्त्र।

दूरों की संख्या के हिसाब से बाँटी जाती है। अतएव यदि पूँजी पूर्ववत् बनी रहकर मज़दूरों की संख्या बढ़ेगी तो हर मज़दूर को पूँजी का जो अंश मिलना चाहिए वह कम हो जायगा। अर्थात् मज़दूरी का निर्ख़ घट जायगा। इसी तरह मज़दूरों की संख्या पूर्ववत् बनी रहकर यदि, पूँजी कम होजायगी तो भी वही परिणाम होगा। पूँजी बढ़कर यदि मज़दूर पूर्ववत् ही रहेंगे, अथवा यदि पूँजी पूर्ववत् रहकर मज़दूर कम-हो जायँगे, तभी मज़दूरी का निर्ख़ बढ़ेगा।

अँगरेज़ सम्पत्ति-शास्त्रवेत्ताओं का मत है कि मज़दूरों की मज़दूरी करख़ानेदारों की चल पूँजी से दी जाती है। अमेरिका के सम्पत्ति-शास्त्रवेत्ता बाकर साहब इस सिद्धान्त के प्रतिकूल हैं। वे कहते हैं कि यह कोई ज़रूरी बात नहीं कि पहलेही से अलग कर दीगई चल पूँजी से ही मजदूरों की मज़दूरी दीजाय। इँगलैंड में ऐसा होता है, अमेरिका में नहीं। अमेरिका के मज़दूर और कारीगर आदि भूखों नहीं मरते जो कारख़ानेदारों से रोज़ मज़दूरी लें, या अपनी बनाई या तैयार की हुई चीज़ों की बिक्री के पहलेही मज़दूरी माँगने लगे। वे इँगलैंड वालों की अपेक्षा अधिक ख़ुशहाल हैं। इससे जो चीज़ें ये बनाते या तैयार करते हैं उनके बिकने पर वे उजरत लेते हैं। अर्थात् उनकी मेहनत की बढ़ौलत कारख़ानेदार की जो कुछ मिलता हैं उससे उन्हें मज़दूरी दीजाती हैं, कारख़ानेदार की पूँजी से नहीं। हाँ यदि उन्हें ज़रूरत हो तो कभी कभी अपनी बनाई हुई चीज़ों की बिक्री के पहले भी मज़दूरी का कुछ अंश ले लेते हैं।

वाकर साहब कहते हैं कि यदि कारख़ानेदार मज़दूरों के रोज़ उजरत दे भी दिया करें तो इससे यह नहीं साबित होता कि उजरत का निर्ख़ पूँजी को परिमाण पर अबलम्बित रहता है। क्योंकि कारख़ानेदार अपनी वर्त्तमान पूँजी ख़र्च करने के इरादे से नहीं लगाता, किन्तु अधिक सम्पत्ति पैदा करने के इरादे से लगाता है। मज़दूरों की मेहनत से यदि अधिक सम्पत्ति पैदा होती है तो उन्हें अधिक मज़दूरी मिलती है और जो कम पैदा होती है तो कम। अतएव मज़दूरों की मज़दूरी का परिमाण, उनकी मेहनत से पैदा हुई सम्पत्ति परिमाण पर अवलम्बित रहता है, पूँजी के परिमाण पर नहीं। मज़दूर जितनाही अधिक कार्य्य-कुशल और मेहनती होगा, सम्पत्ति भी उतनीही अधिक पैदा होगी और मज़दूरी भी उसे उतनींही अधिक मिलेगी।

बाकर साहब का यह मत अमान्य नहीं किया जा सकता। उनकी