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मज़दूरी।


दलीलें बहुत पुष्ट और मज़बूत हैं। जैसा हम ऊपर दो एक उदाहरणों से साबित कर चुके हैं, मज़दूरों को अधिक मज़दूरी मिलना बहुत कुछ उनकी कार्य-कुशलता पर अवलम्बित रहता है। पर जहाँ मजदूरों की मेहनत से बनी या तैयार हुई चीज़ों की बिक्री से नई सम्पत्ति पैदा होने के पहले ही मज़दूरी दीजाती है वहाँ वह पहलेही से अलग कर दीगई चल पूँजी से ही दी जाती है। इसमें सन्देह नहीं। कारख़ानों में तैयार हुई चीज़ की बराबर बिक्री होती रहने से चल पूँजी का परिमाण प्रतिदिन घट चढ़ सकता है। जो कारीगर या मज़दूर अच्छा काम करने वाला होगा उसे भी पहले मज़दूरी पूर्वसञ्चित पूँजी से ही दी जायगी। यदि उसकी उजरत का निर्ख़ बढ़ेगा तो उसकी मदद से उत्पन्न हुई अधिक सपत्ति के परिमाण की देखकर बढ़ेगा, उसके पहले नहीं। अतएव वाकर साहब का सिद्धान्त मानलेने पर भी यह ज़रूर मानना पड़ेगा कि नई सम्पत्ति की बिक्री के पहले जो मज़दूरी मजदूरों को मिलेगी वह पूर्वसञ्चित पूँजी से ही मिलेगी।

मज़दूरी के निर्ख़ पर स्पर्धा अर्थात् चढ़ा-ऊपरी का भी बहुत असर पड़ता है--मज़दूरी में कमी-बेशी होने का कारण चढ़ा-ऊपरी भी है। पूँजी वाले चाहते हैं कि कम मज़दूरी दें और मज़दूर चाहते हैं कि अधिक मज़दूरी लें। इससे पूँजी वालों और मजदूरों में हमेशा हित-विरोध रहता है। बहुत लोगों को एकदम अधिक मज़दूरों की ज़रूरत होने से मज़दूरी का निर्ख़ बढ़ जाता है। और काम कम होजाने से, जब बहुत से मज़दूर बेकार हो जाते हैं, मज़दूरी का निर्ख़ घट जाता है।

मज़दूरी का निर्ख़ बढ़ना देश के समृद्ध होने का चिह्न है। क्योंकि मज़दूरी तभी अधिक दी जासकेगी जब देश में चल पूँजी अधिक होगी। और चल पूँजी का अधिक होना, अधिक सञ्चय का फल है। अधिक सञ्चय तभी हो सकता है जब जीवनोपयोगी सामग्री मोल लेने में ख़र्च कम पड़े। अर्थात् खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने की चीज़ें सस्ती होनेही से ख़र्च में कमी होती है और पास कुछ बच रहता है। परन्तु कोई चीज़ तबतक सस्ती नहीं बिकती जबतक उसकी उत्पत्ति में ख़र्च कम न पड़े। और उत्पत्ति का ख़र्च बहुत करके तभी घटता हैं जब यन्त्रों से काम लिया जाय। अतएव बड़े बड़े कल कारख़ानों का खुलना और उनमें यन्त्रों से काम होना भी मज़दूरों के लिए लाभदायक बात है।

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