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व्यवसायियों और श्रमजीवियों के हितचिरोध-नाशक उपाय ।


हिसाब लगाया जाता है और लगी हुई पूंजी का ५फ़ीसदी के हिसाब से सूद काट कर पाती मुनाफ़ा सब ग्राहकों को बाँट दिया जाता है। उस मुहत में जिस प्राहक ने जितने का माल लिया होता है उतने पर उसे मुनाफ़े का हिस्सा मिलता है। इस तरह की दुकानें यद्यपि नाम माम के लिए सहकारी या सहाद्योग-जात होती है, तथापि उनसे व्यापार में बहुत लाभ होता है। इस तरह की एक सब से पुरानी और प्रसिद्ध दुकान राक- जेल में है। उसका नाम "राकडेल पायोनियर्स सोसाइटी" है। १८४४ ईसवी में कुछ मजदूरों ने चन्दा करके उसे खोला था। उस समय इस दुकान को पूँजी १०० रुपये भी नहीं थी। पर ३८ वर्ष बाद, १८८२ ईसवी में, इसका लेन देन ४१ लाख रुपये से भी अधिक हो गया । यथार्थ में इस सरह की दुकानों को संयुक्त मूल धन से स्थापित की गई एक प्रकार की कम्पनियाँ ही कहना चाहिए, जो नकद लेन देन करके ग्राहकों को मुनाफ़े का हिस्सा देती है। यही कारण है जो इस तरह की दुकानों से बहुत जल्द इतना लाभ होता है। थोक बिक्रोके लिए भी इस तरह की दुकानें खोली जा सकती हैं। इंगलैंड और जर्मनी पादि देशों में सहोद्योग-जात बैंक भी खोले गये हैं। इनसे भी बहुत लाभ होता है। हिन्दुस्तान की गवर्नमेंट ने कुछ समय से "को-आपरेटिव क्रेडिट सोसाइटीज़" (Co-operative Credit Societies) नामक बैंक यहां भो खोलने की कृपा को है। यदि ये बैंक अच्छी तरह चलाये जाय तो गरीब किसानों को थोड़े सूद पर रुपया उधार मिल सके और फीसदी तीस तीस रुपया वार्षिक घ्याज से भी अधिक प्याज लेनेवाले महा- जनों के चंगुल से वे बच जायें । हित-विरोध-नाश के जो उपाय योरप और अमेरिका में किये गये हैं उनसे पूँजीवालों और मजदूरों दोनों को लाभ हुआ है और बराबर होता जाता है। इन्हीं उपायों का अवलम्बन हमारे देश में भी होना चाहिए | आशा है, जैसे जैसे शिक्षा का प्रचार बढ़ता जायगा पीर जैसे जैसे सम्पतिशास्त्र के तत्वों का ज्ञान लोगों को होता जायगा, वैसे थैले उद्योग-धन्धे की सफलता के उपाय भी समझ में आते जायगे और चैसेही पैसे सहोद्योग के नियमों के अनुसार व्यापार-व्यवसाय करने की तरफ लोगों की प्रवृत्ति भी अधिक होती आयगी।