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सम्पत्ति-शास्त्र।


है कि मेहनत-मजदूरी करनेवाले श्रमजीवी लोगों को उनके श्रम के बदले जो वेतन मिलता है उसकी आलोचना इस शास्त्र में ज़रूर होती है।

वाणिज्य अर्थात् व्यापार भी सम्पत्ति-शास्त्र के अन्तर्गत है; क्योंकि व्यापार सिर्फ सम्पत्ति का अदला-बदल है। जिन चीज़ों की गिनती सम्पत्ति में है उनके विनिमय—उनके अदला-बदल—का ही नाम व्यापार है। व्यापार में ६ तरह से विनिमय होता है। यथा :——

(१) भौतिक चीज़ों के बदले भौतिक ही चीजें देना। उदाहरणार्थ—१२ सेर गेहूं के बदले ४ सेर शक्कर।

(२) शिल्पनैपुण्य और कार्यकुशलता आदि गुणरूप सम्पत्ति के बदले भौतिक चीजें देना। उदाहरणार्थ—किसी कारीगर से दो दिन कोई काम कराकर उसकी मेहनत के बदले २० सेर गेहूं देना।

(३) भौतिक चीज़ों के बदले कोई हक देना। उदाहरणार्थ—किसी छापेखाने से १०० रुपये की किताबें लेकर उनके बदले एक हुंडी या चेक देकर उतना रुपया वसूल कर लेने का हक़ देना।

(४) गुणरूप सम्पत्ति के बदले वैसी ही सम्पत्ति देना। उदाहरण के लिए किसी से फ़ोटोग्राफ़ी सीख कर उसे सितार बजाना सिखलाना, या किसी से वेदान्त पढ़ कर उसे न्याय पढ़ाना, या खेत जोतने में किसी से मदद लेकर उसके धान सींचने में मदद देना आदि।

(५) परिश्रम आदि गुणरूप सम्पत्ति के बदले कोई हक़ देना। उदाहरणार्थ—कोई किताब लिखने में किसी से मदद लेकर, हुंडी या चेक के रूप में अपनी मेहनत का बदला लेने का हक़ प्राप्त करना।

(६) हक़ के बदले हक़ देना। उदाहरणार्थ—देवदत्त ने १०० रुपये का घी शिवदत्त के हाथ उधार बेचा। अतएय शिवदत्त से इतना रुपया वसूल पाने का हक देवदत्त को प्राप्त हो गया। अब यदि यही घी देवदत्त ने यशदत्त से उधार ले कर शिवदत्त के हाथ बेचा हो, तो यशदत्त को भी देवदत्त से १०० रुपये वसूल पाने का हक़ प्राप्त है। इस दशा में यशदत्त को देवदत्त अपना वह हक़ दे सकता है जो उसे शिवदत्त पर प्राप्त है।

संसार में जितना व्यापार होता है सब ऊपर लिखे गये किसी न किसी तरीके से ही होता है। यह और कुछ नहीं, सिर्फ़ एक चीज़ का बदला