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सम्पत्ति-शास्त्र।


उन कम हो जाती है, उनके हाथ पर जल्द नहीं उठते । इससे उनसे कम परिक्षम होता है। ऐसे मजदूरों से सम्पत्ति की यथेष्ट उत्पत्ति नहीं होसकती।

श्रमजीचियों के श्रम से अधिक सम्पत्ति उत्पन्न होने के लिए और भी कई बातों को ज़रूरत है। उनमें से (१)एक बात ईमानदारी है। ईमान- दार मजदूरों से काम लेने में देखभाल की बहुत कम जरूरत रहती है । इससे देखभाल के लिए जो आदमी रखने पड़ते हैं उनका खर्च कम होजाता है और नर्च का कम होना मान सम्पत्ति की उत्पत्ति का अधिक होजाना है। (२) दूसरी बात कार्य-कुशलता है । जिस लकड़ी से एक मामूली घदई भदा वाक्स बनाकर चार रुपये को बैंचता है उसीसे एक कुशल बढ़ाई अलमारी धनाकर बीस रुपये को येवता है । चतुर और कुशल पादमी अपनी कारीगरों की बदौलत अपने श्रम से जितनी सम्पत्ति पैदा कर सकता है मामूली फारीगर कभी नहीं कर सकता । अतएघ सम्पत्ति की अधिक उत्पत्ति के लिए श्रमजीची मजदूरों और कारीगरों आदि में कार्ययकुशलता की भी बड़ी ज़रूरत है । जिस काम के लिए यफ साधारण कारीगर पाठ 'आने रोज़ पाता है उसी के लिए एक चतुर कारीगर अपनी कार्यकुशलता की बदौलत एक रुपया रोज़ पेटा करना है। (३) तीसरी बात धुद्धिमानी और समानता है। जो श्रमजीवी बुद्धिमान नहीं है, जिन्हें इस शन का झरन नहीं है कि सम्पत्ति की किस तरह वृद्धि करनी चाहिए, उनका श्रम कमी अधिक उत्पादक नहीं होना । देखिए, इस देश के निर्बुद्धि और अरूपा बढ़ई, लोहार. कुम्हार और जुलाहे आदि अपने पूर्वजों के रोजगार को अब भी उसी तरह कर रहे हैं जिस तरह कि सैकड़ों हजारों वर्ष पहले होता था । • उसमें तरक्की करने की बात कभी उनको सूझतीही नहीं। यदि चे बुद्धिमान और. यथेट सशान होने तो और और देशों की बनी हुई अच्छी अच्छी चीजें देखकर वैसी ही चीजें बनाने के उपाय सोचते, और अपने परिश्रम से अधिक सम्पत्ति पैदा करके खुद भी सम्पत्तिमान होते और देश को भी सम्पत्ति को बढ़ाते।

श्रमजीवियों के जिन दोपों का वर्णन ऊपर किया गया उनमें से कुछ मानसिक हैं, कुछ शारीरिक । इन दोनों प्रकार के दोपों में से कुछ तो स्वा- भाषिक हैं और कुछ अस्वाभाविक । यदि किसी देश के मजदूर स्वभावहीसे कमज़ोर हों, या यदि कोई मज़दूर स्वभावही से निबुद्धि या कमअक्ल, दो तो