पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४
सम्पत्ति-शास्त्र।

आप कहेंगे कि मजदूरों को जो मजदूरी दीजाती है बह रूपये पैले के रूप में दी जाती है। इसलिए उसे भी पूँजी में गिन लीजिए। पर रुपया- घेसा सम्पत्ति नहीं । देहात में अब भी कहीं कहीं मजदूरों को क्या, सभी श्रमजीवियों को, अनाजही मजदूरी में दिया जाता है । पर जहां ऐसा नहीं होता वहां भी तो मज़दूर रुपये पैसे के बदले बाज़ार में अनाज और घल मादिही लेते हैं। इससे रूपया पूँजी नहीं । जैसे रुपया-पैसा सम्पत्ति नहीं, सेही पूँजी भी नहीं। वह तो. जैसा पहले कहा जा चुका है, सम्पत्ति का चिन्ह और उसके विनिमय का साधनमात्र है। सम्पत्ति के उत्पादन-कार्य में विनिमय के सुभीनेही के लिए म्पये पैसे की जरूरत होती है । सम्पत्ति उत्पन्न करनेवाले न उसे ग्या सकने हैं. न पी सकने है, न पहन सकने हैं । जब वह उत्पत्ति के किसी काम नहीं आता तब यह पूँजी कैसे हो सकता है ? सम्पत्ति उत्पन्न करते समय उसके लिए मजदूरी. यन्त्र, औजार, निगरानी, उत्पादकों के रहने की जगह नया और अावश्यक चीज़ पूँजी कहलाती हैं, म्पया-पैसा नहीं ।

सारांश यह कि भावी सम्पत्ति की उत्पत्ति के लिए पहले प्राप्त हुई सम्पत्ति का जो भाग सञ्चित कर रखा जाता है वही पूंजी है । अथवा यो कहिए कि धन-विशेष के सञ्चय ही का नाम पूँजो है। हां, एक बात याद रखनी चाहिए। वह यह कि सब तरह की पूँजो धन या सम्पत्ति हो सकती है । पर सब तरह का धन या सम्पत्ति पूँजो नहीं हो सकती। जिस धन या सम्पत्ति से और धन या सम्पत्ति की उत्पत्ति होती है सिर्फ यहो पूँजी है।

सञ्चय की इच्छा।

पूँजी सञ्चय का फल है । पर सम्चय की इच्छा मनुष्य के मनमें उत्पन्न क्यों होती है ? इसलिए, कि पास कुछ सञ्चय होने से आगे काम आता है। दुर्भिक्ष पड़ने, बीमार हो जाने, अथवा ऐसेही और किसी कारण से जब प्रादमी सम्पत्ति नहीं उत्पन्न कर सकता, और चाहिए उसे सम्पत्ति ज़रूर, तब ऐसे सञ्चय से वह अपने सांसारिक काम चलाता है। इसीसे उसे सम्चय की इच्छा होती है । यह पहला फारण हुआ । दूसरा कारण व्यापार प्रादि में पूँजी लगाकर अधिक सम्पचि पैदा करने का खयाल है । इसके यही दो