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तीसरा भाग
सम्पत्ति की वृद्धि ।


पहला परिच्छेद ।
प्रारम्भिक बात ।

पिडत माधवराव सप्रे, बी० ए०, ने, अपने एक अप्रकाशित लेख में, इस विषय का बहुत अच्छा विवेचन किया है । अतएव, प इस भाग में, हम अधिकतर उन्हीं की विचारमालिका को कृतमतामदर्शनपूर्वक अपने शब्दों में प्रकट करते हैं । जमीन, मेहनत और पूंजी की मदद से ही सम्पत्ति पैदा होती है। इस बात का विचार इसके पहले भाग में हो चुका । साधही इस वात का भी विचार हो चुका कि ज़मीन. मेहनन और पूंजी की उत्पादक शनि किस तरह बढ़ाई जा सकती है। अब हमें इस बात के विचार को जरूरत है कि यदि ज़मीन, मंहनन और बी की उत्पादक शक्ति चरम सीमा को पहुंच जाय-इतनी हो जाय कि उससे अधिक और न हो सके- नो, इस दशा में भी, सम्पत्ति की वृद्धि हो सकेगी या नहीं? और यदि हो सकेगी तो किस तरह?

इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रकृति अथवा परमेश्वर ने संसार में मनुष्य के फायदे के लिए सम्पत्ति का अपरिमित समूह इकट्ठा कर रखा है। उसने संसार-स.पी भाण्डार में इतनी सम्पत्ति भर रस्त्री है जिसका कहीं ठौर ठिकाना नहीं । उसे पाने के लिए सिर्फ बुद्धि दरकार है-सिर्फ शान दरकार है। परमेश्वर मानमय है। ज्ञानही से मनुष्य उसका थोड़ा बहुत भेद जान सकता है । अतएव उसकी रमन्त्री हुई चीज़ हुँढ़ निकालने के लिए भी शान ही एकमात्र साधन है। जिसमें जितनाहीं अधिक शान होगा वह उतनाहीं अधिक ईश्वर की सञ्चित सम्पत्ति पाने में कामयाब होगा। सम्पत्ति-प्राप्ति के साधनों की सीमा अन्त तक भलेही पहुँच जाय, यदि पादमी में यथेष्ट