(३) जो मजदूर नहाल, माल्टा, ट्रिनिडाड, जमाइका, कनाडा आदि दूसरे दूसरे देशों और टापुओं को जाते हैं वे वहाँ न जाकर यहीं चाय के बागीचों और कारखानों में काम करने लगेंगे।
(४) मिल सकेंगे तो दूसरे देशों से यहाँ मजदूर लाये जायेंगे ।
(५) मनुष्य-संख्या बढ़ने से अधिक मज़दूर मिलने लगेंगे।
याद रहे, अधिक मज़दूर मिलने के ये मार्ग मात्र हैं। इन्हीं 'पाँच द्वारों से मजदूरों को संख्या बढ़ाई जा सकती है। पर हर देश की स्थिति जुदा अदा होती है और अपनी अपनी स्थिति के अनुसार हर देश मजदूरों की संख्या बढ़ा सकता है
मेहनत मज़दूरी की तभी अधिक ज़रूरत होती है जब देश की दशा सुधर जातो है या सुधरने लगती है । जहाँ घ्यापार खूब होता है, उद्योग- धन्धों की तरकी होती है, खेती की भी दशा अच्छी होती है, वहीं अधिक मजदूर दरकार होते हैं । अर्थात् जैसे जैसे सम्पत्ति की वृद्धि होती जाती है वैसेही पैसे मजदूरों की संख्या की भी वृद्धि होती है। अधिक मजदूरों की ज़रूरत होना, अधिक सम्पत्ति का चिह्न है। इस दशा में मजदूरों को मज़दूरी भी शातिरख्वाह मिलती है-उनकी माहवारी तनख्वाह भी बढ़ जातो है-और चे पाराम से रह सकते हैं। उन्हें साने, पीने, पहनने, ओढ़ने की कोई विशेष तकलीफ नहीं होती। इससे उनकी शारीरिक अवस्था भी सुधर जाती है, और पहले की अपेक्षा शादीच्याह भी उनके अधिक होने लगते हैं । फल यह होता है कि उनकी सन्तति शीघ्र बढ़ने लगती है और थोड़े ही समय में उनकी संख्या अधिक हो जाती है।
सम्पति शास्त्र के कोई काई सिद्धान्त बड़े ही अजीब हैं। उनमें वृद्धि- हास लगा ही रहता है। जो माल महँगा होता है यह जब अधिक तैयार होने लगता है तब सस्ता हो जाता है। और सस्ते माल का बनना बन्द होने से वह फिर महँगा हो जाता है । मजदूरों का भी यही हाल है। उनकी संख्या का बहाना मानों आबादी का बढ़ना है। और जब आबादी बढ़ जातो है तब अनाज आदि खाने पीने की चीजें महंगी हो जाती है। उनके महँगी से घेचारे मजदूरों की हालत फिर खराब होने लगती है। यही उतार चढ़ाव लगा रहता है।