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३६. प्रार्थनापत्र: नेटाल विधानसभाको'

डर्बन

२८ जून, १८९४

सेवामें

माननीय अध्यक्ष और सदस्यगण

विधानसभा, नेटाल उपनिवेश

नेटाल उपनिवेशवासी भारतीयोंका प्रार्थनापत्र

नम्र निवेदन है कि,

(१) प्रार्थी भारतसे आकर इस उपनिवेशमें बसी हुई ब्रिटिश प्रजा हैं।

(२) प्राथियोंमें से अनेकके नाम मतदाताओंके रूपमें दर्ज हैं। उन्हें आपकी परिषद और सभाके चुनावोंमें मत देनेका बाकायदा हक है।

(३) मताधिकार कानून संशोधन विधेयकके दूसरे वाचनका जो विवरण अखबारोंमें प्रकाशित हुआ है उसे प्रार्थियोंने सच्चे खेद और भयके साथ पढ़ा है।

(४) आपके माननीय सदनके प्रति अधिकसे-अधिक आदर रखते हुए भी प्रार्थी विभिन्न वक्ताओं द्वारा प्रकट किये गये विचारोंसे पूर्ण मतभेद व्यक्त करते हैं। प्रार्थी यह कहने पर विवश है कि जिन कारणोंसे इस दुर्भाग्यपूर्ण विधेयकको स्वीकार करना उचित बताया गया है, उनका सच्ची परिस्थितियोंसे समर्थन नहीं होता।

(५) आपके प्रार्थियोंका विचार है कि समाचारपत्रोंके अनुसार, विधेयकके समर्थन में जो कारण दिये गये वे इस प्रकार है :

(क)भारतीयोंने अपने देशमें मताधिकारका प्रयोग कभी नहीं किया।

(ख)वे मताधिकारके प्रयोगके लिए योग्य नहीं हैं।

(६)पार्थी आदरपूर्वक माननीय सदस्योंकी दृष्टिमें ला देना चाहते हैं कि इतिहास और सारी वस्तुस्थितियाँ दूसरी ही बात सूचित करती हैं।

(७)जब एंग्लो-सैक्सन जातियोंको प्रतिनिधित्वके सिद्धान्तोंका ज्ञान हुआ उसके बहुत पहलेसे भारत-राष्ट्र चुनावके अधिकारोंसे परिचित रहा है और उनका प्रयोग करता आ रहा है।

(८) उपर्युक्त कथनके समर्थनमें प्रार्थी आपकी सम्माननीय परिषद और सभाका ध्यान सर हेनरी समर मेनकी पुस्तक 'विलेज कम्यूनिटीज'की ओर आकर्षित करते

१. पहले यह प्रार्थनापत्र विधानपरिषद और विधानसभा दोनों के नाम लिखा गया था। बाद में संशोधन करके इसे केवल विधानसभाके नाम कर दिया गया। परिषदको एक अलग प्रार्थनापत्र दिया गया था, देखिए "प्रार्थनापत्र: नेटाल विधान परिषदको", ४-७-१८९४ ।

२. १८२२-८८, प्रमुख विधिवेत्ता, जिनको एक कृति ऐन्शेंट लॉ ऐंड अर्ली हिस्ट्री ऑफ इन्स्टीटयूशन्स भी है। वे १८६२ से १८६९ तक और १८७१ में भी भारत-परिषदके सदस्य रहे थे।