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प्रार्थनापत्र : लोर्ड रिपनको

तौरसे, स्वतन्त्र हो जानेके बाद, वे शीघ्रतासे यूरोपीय सभ्यताको अपनाने लगते हैं और पूरे उपनिवेशी बन जाते हैं। यह स्वीकार किया जा चुका है कि शान्तिपूर्वक रहनेवाले ये लोग बहुत उपयोगी हैं--सचमुच तो अमूल्य हैं। यह बता देना अनुचित न होगा कि इस समय जो शिक्षित भारतीय युवक सरकारी नौकरियोंमें मुहरिरों या दुभाषियोंका, या सरकारी नौकरियोंके बाहर शिक्षकों और वकीलोंके मुंशियों आदिका काम कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर गिरमिटिया मजदूर बनकर उपनिवेशमें आये थे। प्रार्थियोंका निवेदन है कि उनको या उनके बच्चोंको मत देनेसे या अपने ही शासनमें किसी प्रकारका प्रभाव रखनेसे वंचित करना एक क्रूर कार्य होगा। अगर कोई आदमी दूसरे रूपोंमें नियमानुसार योग्य है, या योग्य बन जाता है, तो सिर्फ इतनी बात ही उसकी राजनीतिक स्वतन्त्रता और राजनीतिक अधिकारोंकी प्राप्तिमें बाधक नहीं होनी चाहिए कि वह एशियाई वंशका है, या गिरमिटिया बनकर उपनिवेशमें आया था।

(२४) महानुभावका ध्यान प्रार्थी इस विरोधी परिस्थितिकी ओर भी आकृष्ट करते है कि यह विधेयक भारतीयोंको असभ्यसे-असभ्य वतनी लोगोंसे भी नीची कोटिमें रख देगा। क्योंकि उन्हें तो उचित योग्यता प्राप्त करनेपर मताधिकार प्राप्त हो सकता है, परन्तु आज मताधिकार रखनेवाले भारतीय ब्रिटिश प्रजाजन मताधिकारसे ऐसे वंचित हो जायेंगे कि फिर कभी उन्हें वह अधिकार न मिलेगा,भले ही वे मताधिकार छीननेके समय कितने ही योग्य क्यों न हों, या अपने आगेके जीवनमें कितने भी योग्य क्यों न बन जायें।

(२५) प्रार्थी नम्रतापूर्वक निवेदन करते हैं कि यह विधेयक इतना सर्वग्राही और इतना बेरहम है कि इससे सारे भारतीय राष्ट्रका अपमान होता है, क्योंकि अगर भारतका कोई बड़ेसे-बड़ा सपूत भी नेटालमें आकर बसे तो उसे मत देनेका अधिकार नहीं होगा। कदाचित् इसलिए कि औपनिवेशिक दृष्टिसे वह इस अधिकारके लिए अयोग्य ठहरेगा। यह अड़चन दोनों सदनोंके माननीय सदस्योंने स्वीकार की थी और माननीय कोषाध्यक्ष महोदयने तो यहाँतक कहा था कि अड़चनके खास-खास मामलोंपर संसद भविष्यमें विचार कर सकती है।

(२६) ऊपरकी दलीलको और अधिक स्पष्ट करनेके लिए प्रार्थी महानुभावका ध्यान भूतपूर्व नेटाल विधानपरिषदमें भारतीयोंके मताधिकार-सम्बन्धी प्रश्नपर हुई बहसके कागजात और सरकारी गजटोंकी ओर आकर्षित करते हैं। नेटाल-सम्बन्धी एक 'ब्लू बुक'--सरकारी रिपोर्ट (सी-- ३७९६, १८८३) में पृष्ठ ३ पर औप- निवेशिक कार्यालयके नाम श्री सांडर्सका एक पत्र प्रकाशित किया गया है। प्रार्थी उसका निम्नलिखित अंश उद्धृत करते हैं :

यह परिभाषा ही कि ये हस्ताक्षर पूरे हों, निर्वाचकके अपने ही अक्षरोंमें हों और यूरोपीय लिपिमें हों, इस जबरदस्त खतरेको रोकने में बहुत हदतक सहायक होगी कि एशियाइयोंके मत अंग्रेजोंके मतोंको दबा देंगे।