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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैंने खुद देखा है। दुभाषियोंके लिए तो यह भारी श्रेयकी बात है कि वे अनजान शब्दोंके जालसे आशयमात्र भी निकाल लेते हैं। परन्तु जितने समय यह संघर्ष होता है, उतनेमें न्यायाधीश अपने मनमें गवाहके एक शब्दपर भी विश्वास न करनेका फैसला कर लेता है और उसे झूठा करार दे देता है।

अब यह तीसरा प्रश्न — "क्या उनके साथ किया जानेवाला वर्तमान व्यवहार सर्वोत्तम ब्रिटिश परम्पराओं, या न्याय और नीतिके सिद्धान्तों या ईसाई धर्मके सिद्धान्तोंके अनुरूप है?" इसका उत्तर देनेके लिए यह जाँच लेना आवश्यक होगा कि उनके साथ किया जानेवाला व्यवहार है कैसा? मैं समझता हूँ कि यह तो फौरन मंजूर कर लिया जायेगा कि भारतीयोंके प्रति इस उपनिवेशमें बड़ा तीव्र द्वेष है। साधारण लोग भी उनसे द्वेष करते हैं, उन्हें कोसते हैं, उनपर थूकते हैं और अकसर उन्हें पैदल-पटरियोंसे बाहर ढकेल देते हैं। अखबारोंको तो मानो उनकी निन्दा करने के लिए अच्छेसे-अच्छे अंग्रेजी कोशमें भी काफी जोरदार शब्द ढूंढ़े नहीं मिलते। कुछ उदाहरण लीजिए — "सच्चा घुन जो समाजका कलेजा ही खाये जा रहा है"; "वे परोपजीवी"; "मक्कार, मुए अर्ध-बर्बर एशियाटिक"; "दुबली और काली, कोई चीज, निराली; सफाई न निकली छू, कहाते मुए हिन्दू"; "भरा नाक तक बुराइयों से, जीता खा तन्दूल; कोसूंगा दिल भर कर उसको, वह हिन्दू चण्डूल"; "गंदे कुली की झूठी जबान और धूर्त आचार"। अखबार उन्हें सही नामोंसे पुकारनेमें लगभग एक स्वरसे इनकार करते हैं। उन्हें "रामीसामी" कहा जाता है, "मिस्टर सामी" कहा जाता है, "मिस्टर कुली" और "ब्लैक मैन" कहकर पुकारा जाता है। और ये सन्तापकारक उपाधियाँ इतनी आम बन गई हैं कि इनका प्रयोग (कमसे-कम इनमें से एक — "कुली" — का तो अवश्य ही) अदालतकी पवित्र सीमामें भी किया जाता है — मानो, "कुली" कोई कानूनी और व्यक्तिवाचक नाम है, जो किसी भी भारतीयको दिया जा सकता है। लोकपरायण व्यक्ति भी इस शब्दका स्वच्छन्दता से उपयोग करते दिखाई पड़ते हैं। मैंने ऐसे लोगोंको भी इन दुःखदायी शब्दों — "कुली क्लर्क" — का प्रयोग करते सुना है, जिनको वस्तुस्थितिका ज्यादा अच्छा ज्ञान होना चाहिए। ये शब्द अपने-आपमें परस्पर विरोधी हैं और जिसके लिए काममें लाये जाते हैं उसे सन्तापकारक होते हैं परन्तु इस उपनिवेशमें तो भारतीय ऐसे जानवर हैं, जिनकी कोई भावनाएँ होती ही नहीं!

ट्राम गाड़ियाँ भारतीयोंके लिए नहीं हैं। रेलवे कर्मचारी भारतीयोंके साथ जानवरोंके जैसा व्यवहार कर सकते हैं। भारतीय चाहे कितने भी स्वच्छ क्यों न हों, उपनिवेशके प्रत्येक गोरे व्यक्तिको उन्हें देखकर ही सन्ताप हो आता है। और वह सन्ताप इतना होता है कि वे थोड़ी देरके लिए भी भारतीयोंके साथ रेलगाड़ीके एक ही डिब्बेमें बैठना पसन्द नहीं करते। होटलोंके दरवाजे उनके लिए बन्द हैं। मुझे सम्माननीय भारतीयोंके ऐसे उदाहरण मालूम हैं, जिन्हें रात भरके लिए होटलमें स्थान