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पत्र: 'नेटाल विटनेस' को


मैंने आपके सौजन्यका लाभ उठानेका साहस अपनी सफाई देनेके मंशासे नहीं, बल्कि सर्वोच्च न्यायालयके उस निर्णयके कारण किया है, जो सर वॉल्टर रैगके प्रति उचित सम्मान रखते हुए भी, मेरा विश्वास है, मुस्लिम कानूनकी गलत धारणापर आधारित है और भारतीय बाशिन्दोंकी भारी संख्यापर गहरा आघात करनेवाला होगा।

अगर मैं मुसलमान होता और मेरा निर्णय कोई ऐसा मुसलमान करता जिसकी एकमात्र योग्यता यह होती कि वह जन्मसे मुसलमान है, तो मुझे बहुत खेद होता। यह तो एक नई बात मालूम हुई कि मुसलमान तो सहज ज्ञानसे ही कानून जानते हैं और कोई गैर-मुसलमान मुस्लिम कानूनके किसी मुद्देपर कोई मत दे ही नहीं सकता।

अगर आपकी रिपोर्ट सही है तो, मुझे आशंका है, यह निर्णय कि भाईको सम्पत्तिके चौबीसमें से पाँच भागोंका हक तभी होगा जब वह "साबित कर सके कि वह गरीबोंका प्रतिनिधि है", भारतमें प्रचलित और 'कुरान' में बताये गये मुस्लिम कानूनको उलट देनेवाला होगा। मैंने मैकनॉटनकी 'मोहम्मडन लॉ' नामक पुस्तकके वसीयत-सम्बन्धी अध्यायोंको ध्यानपूर्वक पढ़ा है। (यह पुस्तक, प्रसंगवश मैं कह दूँ, एक गैर-मुसलमान भारतीयने सम्पादित की है, और श्री बिन्स तथा मेसनने भारतसे लौटनेके बाद इसे मुस्लिम कानूनपर एक सर्वश्रेष्ठ पुस्तक बताया है।) मैंने 'कुरान' का वह अंश भी पढ़ा है, जो इस विषय से सम्बन्ध रखता है। इन दोनोंमें मैंने एक शब्द भी ऐसा नहीं पाया, जिससे कि किसी मृत मुसलमानकी सम्पत्तिका कोई भाग पानेका हक गरीबोंको मिलता हो। अगर 'कुरान शरीफ' और उपर्युक्त पुस्तक उस कानूनकी जरा भी अधिकारी पुस्तकें हैं, तो विचाराधीन सम्पत्तिके किसी अंशपर गरीबोंका हक नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि किसी भी हालत में, किसी भी बिला-वसीयत जायदाद के अंशपर गरीबोंका कोई अधिकार नहीं है। मैं यह साबित कर सकनेकी आशा रखता हूँ कि जब भाई (सचमुच तो सौतेला भाई होना चाहिए) उस कानूनके अनुसार कुछ प्राप्त करता है, तब वह उसे अपने ही हकसे प्राप्त करता है और इसलिए प्राप्त करता है कि 'वह भाई है'।

सम्भवतः न्यायाधीश महोदय उत्तराधिकारके बारेमें बातें करते समय सचमुच परन्तु अनजाने खैरातके बारेमें सोच रहे थे, जो प्रत्येक मुसलमानके लिए लाजिमी है। खैरात मुसलमानोंकी ईश्वर-निष्ठाका एक अंग है। परन्तु जो सिद्धान्त जीवित अवस्था में खैरातका निर्देश करता है, वह विरासतके बँटवारेपर लागू नहीं होता। जीवन-कालमें खैरात बाँटकर मुसलमान जन्नतका, या जन्नतमें आदरके योग्य स्थानका हक कमा लेता है। उसकी मौतके बाद सरकार द्वारा उसकी जायदादसे बाँटी गई खैरात उसे कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं पहुँचा सकती, क्योंकि यह काम तो उसका नहीं होता। किसी मुसलमानकी मृत्युके बाद उसकी जायदादपर तो उसके रिश्तेदारोंका पहला — नहीं, एकमात्र उनका ही — हक होता है।

'कुरान' का वचन है:

हमने मुकर्रर किया है कि माँ-बाप और रिश्तेदार अपनी मौत के बाद जो जायदाद छोड़ जायें उसका हिस्सा हर रिश्तेदारको मिले।