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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


जहाँतक यह बात है कि उपनिवेशका निर्माण यूरोपीय हाथोंसे हुआ है और भारतीय बिना हरु यहाँ घुस आये हैं, मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि सारी हकीकतें बिलकुल उलटी बात सिद्ध करती हैं।

अब मैं, अपनी टीका-टिप्पणीके बिना, ऊपर बताये हुए (भारतीय प्रवासी आयोगकी रिपोर्टके) अंश उद्धृत करूँगा। यह रिपोर्ट मुझे प्रवासी-संरक्षकसे उधार मिली है, जिसके लिए मैं उनका ऋणी हूँ।

एक आयुक्त, श्री सांडर्स पृष्ठ ९८ पर कहते हैं :

भारतीय प्रवासियों के आनेसे समृद्धि आई, चीजोंकी कीमतें बढ़ गई, अब लोगोंको चीजोंका उत्पादन या बिक्री मिट्टी के मोल नहीं करनी पड़ती थी; वे अब ज्यादा कमा सकते थे। युद्ध, और ऊन, चीनी आदिके ऊंचे भावोंसे समृद्धि कायम रही। भारतीय जिन स्थानिक पैदावारोंका व्यापार करते हैं, उनके भाव भी ऊँचे बने रहे।

पृष्ठ ९९ पर वे कहते हैं :

मैं व्यापक लोकहितकी दृष्टिसे फिर उस प्रश्नपर विचार करूँगा। एक बात निश्चित है — गोरे लोग सिर्फ 'लकड़हारे और पनिहारे' बननेके लिए नेटालमें या दक्षिण आफ्रिकाके किसी दूसरे भाग में नहीं बसेंगे। इसके बजाय वे हमें छोड़कर या तो विस्तीर्ण भीतरी हिस्सों में चले जाना या समुद्रका रास्ता पकड़ना पसन्द करेंगे। जहाँ यह एक तथ्य है, वहीं हमारे और दूसरे उपनिवेशों के कागज पत्र साबित करते हैं कि भारतीय मजदूरोंके आनेसे भूमिकी और उसके खाली क्षेत्रोंकी छिपी हुई शक्ति प्रकट और विकसित होती है और गोरे प्रवासियों के लिए लाभप्रद रोजगार-धंधे के अनेक नये क्षेत्र खुलते हैं।
हमारे निजी अनुभव इसे सबसे ज्यादा स्पष्ट रूपमें साबित करनेवाले हैं। अगर हम १८५९ के सालपर गौर करें तो हम देखेंगे कि भारतीय मजदूरोंका हमें जो आश्वासन मिला था, उससे राजस्वमें तुरन्त वृद्धि हुई, और कुछ ही वर्षोंमें राजस्व चौगुना बढ़ गया। जिन मिस्तरियोंको काम नहीं मिलता था और जो रोजाना ५ शिलिंग या इससे कम कमाते थे, उनकी मजदूरी दूनीसे ज्यादा बढ़ गई। इस उन्नति से शहर से समुद्रतट तक सब लोगोंको प्रोत्साहन मिला। परन्तु कुछ वर्ष बाद एक आतंक फैला (जिसका आधार दृढ़ था) कि भारतीय मजदूरोंका आना सब जगह एक साथ बन्द कर दिया जायेगा (अगर मेरा कथन गलत हो तो कागज पत्र मौजूद हैं, उसे ठीक किया जा सकता है)। बस, राजस्व और मजदूरीमें गिरावट हो गई, प्रवासियोंका आना रोक दिया गया, विश्वास जाता रहा और मुख्य बात जो सोची गई वह थी छँटनी तथा वेतनों में कटौती की। और कुछ वर्ष बाद १८७३ में (१८६८ में होरेकी खानका पता चलनेके बहुत बाद) फिरसे भारतीयोंके आनेका वचन मिला