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भारतीयोंका मताधिकार


और उसने अपना काम किया — राजस्व, मजदूरी और वेतनोंमें फिर वृद्धि हो गई और जल्दी ही छँटनीको अतीतको चीज बताया जाने लगा (काश! अब भी ऐसा ही होता!)।

इस तरह के प्रलेख अपने-आपमें स्पष्ट हैं; उन्हें समझानेके लिए किसी भाष्यकी जरूरत नहीं होनी चाहिए। और उनसे बचकानापन-भरी जातीय भावनाओं और क्षुद्र ईर्ष्याओंको शान्त हो जाना चाहिए।

गैर-गोरे मजदूरों के आनेसे गोरे प्रवासियोंका जो हित हुआ, उसका और अधिक प्रमाण देने के लिए मैं औपनिवेशिक हित-अहितको पूरी तरह अपना हित-अहित बना लेनेवाले मैंचेस्टरके ड्यूकके एक भाषणका हवाला दे दूँ। वे अभी-अभी क्वीन्सलैंड से लौटे हैं और उन्होंने अपने श्रोताओंको बताया है कि वहाँ गैर-गोरे मजदूरोंके आगमन के विरुद्ध आन्दोलनका परिणाम स्वयं उन गोरे प्रवासियों के लिए ही अन्यन्त विनाशकारी हुआ है, जिन्होंने आशा की थी कि बाहरसे गैर-गोरे मजदूरोंका आना रोककर वे प्रतिद्वन्द्विताको नष्ट कर देंगे। उनके मन में यह गलत धारणा बन गई है कि गैर-गोरोंकी प्रतिद्वन्द्वितासे उनका काम धन्धा छिनता है।

पृष्ठ १०० पर वही सज्जन आगे कहते हैं :

जहाँतक स्वतन्त्र भारतीय व्यापारियों, उनकी प्रतिद्वन्द्विता और उसके फलस्वरूप उपभोग्य वस्तुओंकी कीमतोंमें कमीका सम्बन्ध है, जिससे जनताको लाभ होता है (और फिर भी विचित्र बात यह है कि उसकी वह शिकायत करती है), वहाँतक साफ-साफ बता दिया गया है कि इन भारतीय दुकानोंको गोरे व्यापारियोंकी बड़ी-बड़ी पेढ़ियोंने ही पूरी तरह पोसा है, और वे ही अब भी पोस रही हैं। इस तरह ये पेढ़ियाँ अपना माल बेचने के लिए इन लोगोंको लगभग अपने नौकर बनाकर रखती हैं।
आप चाहें तो भारतीयोंका आगमन रोक दें। अगर अभी खाली मकान काफी न हों तो अरबों या भारतीयोंको, जो इस आधेसे कम आबाद देशकी उपज व खपतकी शक्ति बढ़ाते हैं, निकालकर और भी मकान खाली करा लें। परन्तु इस एक विषयको उदाहरण के तौरपर उठाकर जाँचिए, और इसके परिणामोंका पता लगाइए। पता लगाइए कि किस तरह मकानोंके खाली पड़े रहनेसे जायदाद और सेक्युरिटीजकी कीमत घटती है और इसके बाद, कैसे गृह-निर्माणका धन्धा तथा अपने मालकी खपत के लिए इस धन्धे पर निर्भर अन्य धन्धे और दुकानें अनिवार्यतः ठप हो जाती हैं। देखिए कि इससे गोरे मिस्तरियोंकी माँग कैसे कम होती है, और इतने लोगोंकी खर्च करनेकी शक्ति कम हो जानेसे कैसे राजस्वमें कमीकी अपेक्षा करनी होगी, इसी तरह छँटनी