दक्षिण आफ्रिका विभिन्न भागों में प्रकाशित होनेवाले नियमों और कानूनोंमें रंग-भेद नित्यप्रति ही दाखिल होता रहता है। यह बात इतनी अधिक होने लगी है कि भारतीयोंके लिए अपने अधिकारोंपर प्रहार करनेवाले तमाम कानूनोंसे परिचित रहना और उन्हें सम्राज्ञी सरकारकी दृष्टिमें लाना असम्भव है। फिर, भारतीय तो मुख्यतः व्यापारी और कारीगर हैं। वे सिर्फ अपने व्यापारके योग्य ही ज्ञान रखते हैं। और बहुतों को तो उतना भी नहीं है।
और स्थिति यहाँतक पहुँच गई है कि प्रार्थी स्थानिक अधिकारियोंसे ऐसा अन्याय भी दूर करा सकनेकी आशा नहीं रखते, जो प्रस्तुत मामलेके समान ब्रिटिश संविधानके मूलभूत सिद्धान्तोंके अज्ञानसे हो गया हो।
प्राथियोंको भय है कि यदि एक सम्राज्ञी-शासनाधीन उपनिवेश सम्राज्ञीकी प्रजाके एक अंशको जमीन-जायदाद के अधिकार देनेसे इनकार कर सकता है तो दक्षिण आफ्रिकी गणराज्य और ऑरेंज फ्री स्टेटकी सरकारोंका भी वैसा ही करना या उससे आगे बढ़ जाना बहुत हदतक उचित ठहरेगा।
प्रार्थियोंका निवेदन है कि एशोवेके नियमोंमें रंग-भेदका अस्तित्व है, इस आधार पर नोंदवेनीमें भी उसी तरह के नियम बनाना उचित नहीं होना चाहिए। अगर एशोवेके नियम बुरे हैं तो यह उचित होगा कि दोनोंमें ही ऐसा परिवर्तन या संशोधन कर दिया जाये, जिससे कि ब्रिटिश भारतीय प्रजाके न्यायपूर्ण अधिकारोंपर प्रहार न हो।
प्रार्थी आपका ध्यान एक और वस्तुस्थितिकी ओर भी आकर्षित करनेकी इजाजत लेते हैं। सम्राज्ञीकी भारतीय प्रजाके अधिकारोंपर प्रहार करनेवाले कानूनोंसे न केवल दक्षिण आफ्रिकावासी भारतीय भारी परेशानीमें पड़ते हैं, बल्कि ऐसे कानूनोंको बदलानेके