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प्रार्थनापत्रः नेटाल विधानसभाको

इसका प्रमाण देनेसे कि भारतमें उन्हें प्रातिनिधिक संस्थाओंकी सुविधा उपलब्ध है, वह आवश्यकता कम नहीं होगी।[१] अगर जरूरत नहीं है तो भारतीयोंपर द्विविधाजनक कानून क्यों लादा जाये? अगर मताधिकारके प्रश्नका फैसला इस सवालके जवाबसे किया जाना हो कि भारतमें प्रातिनिधिक संस्थाएँ हैं या नहीं, तो मेरा निवेदन है। कि इस विषयकी सामग्री इतनी कम नहीं है कि उपनिवेशी तत्काल और सदाके लिए इसका फैसला न कर सकें। फिर एक ऐसे कानूनकी तो कोई जरूरत ही नहीं है जो इस विषयको अनिर्णीत छोड़ दे और वह बादमें अदालत द्वारा तय होता रहे, जिसमें बेकार धनकी बरबादी होती है।

आपका,

मो° क° गांधी

[अंग्रेजीसे]
नेटाल विटनेस, १७-४-१८९६

 

९०. प्रार्थनापत्र : नेटाल विधानसभाको

डर्बन
२७ अप्रैल, १८९६

सेवा में
समवेत संसदके नेटाल विधानसभा के
माननीय अध्यक्ष और सदस्यगण
पीटरमैरित्सबर्ग

नीचे हस्ताक्षर करनेवाले नेटालवासी भारतीयोंका प्रार्थनापत्र नम्र निवेदन है कि,

इस समय जो मताधिकार कानून संशोधन विधेयक आपके विचाराधीन है उसके सम्बन्धमें नेटालवासी भारतीय समाजके प्रतिनिधियोंकी हैसियतसे, और उसकी ओरसे, प्रार्थी इस सम्माननीय सदनसे निवेदन कर रहे हैं।

 
  1. भारत में 'प्रातिनिधिक संस्थाओं' की सुविधा उपलब्ध है या नहीं इस प्रश्नको लेकर नेटाल विधानसभा में ९ अप्रैलको थोड़ी चर्चा हुई थी। प्रधान-मन्त्रीका यह कथन अपर्याप्त माना गया था कि 'मताधिकारपर आधारित' प्रातिनिधिक संस्थाएँ उनके यहाँ नहीं हैं। विधेयकके प्रारूपमें 'संसदीय संस्थाएँ' शब्दोंके स्थानपर 'निर्वाचित प्रातिनिधिक संस्थाएँ' शब्द रख दिये गये थे। गवर्नरने विधान सभाके समक्ष अपने अभिभाषण में इन शब्दोंको ही प्रयुक्त किया था। २२ अप्रैलको होनेवाला विधेयकका द्वितीय वाचन कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया था जिससे कि औपनिवेशिक सरकार और ब्रिटिश सरकारके बीच हुआ सम्बन्धित पत्र-व्यवहार सुलभ कराया जा सके और वे उसपर विचार कर सकें; देखिए अर्ली फेज, पृष्ठ ६०५-६।