यह आपत्ति यूरोपीयोंके दृष्टिकोणसे है। प्रार्थी इस विचारसे तो सहमत हैं ही, परन्तु उक्त उपधाराके सिद्धान्तपर उनको इससे भी भारी एक आपत्ति है। भारतीय समाज मतदाता सूची में भारतीय नामोंकी संख्या देखनेको उतना व्यग्र नहीं, जितना कि ब्रिटिश प्रजाके नाते अपने अधिकारों और विशेषाधिकारोंकी रक्षाके लिए है। वे ब्रिटिश प्रजाके साथ बराबरीकी मान-मर्यादा चाहते हैं। सम्राज्ञीने एकाधिक अवसरों पर ब्रिटिश भारतीयोंको इसका आश्वासन दिया है। भूतपूर्व मुख्य उपनिवेश-मन्त्री के एक विशेष खरीते द्वारा नेटालके भारतीय समाजको सम्राज्ञी सरकारने यह आश्वासन विशेष रूपसे दिया है। यदि अमुक योग्यता रखनेवाले ब्रिटिश प्रजाजन अधिकारपूर्वक मताधिकार मांग सकते हैं तो, प्रार्थी नम्रतापूर्वक पूछते हैं, भारतीय ब्रिटिश प्रजाजन क्यों नहीं माँग सकते?
तरीका दुःसाध्य है और वह मताधिकारके संघर्षको सदा कायम रखेगा। इसके अलावा वह संघर्षको यूरोपीयोंके हाथोंसे भारतीयोंके हाथोंमें तबदील कर देगा। विधान-सभामें दूसरे वाचनपर दिये गये भाषणोंसे मालूम होता है कि गवर्नर यदि अपने अधिकारका किंचित प्रयोग करेंगे भी, तो बहुत बचा-बचाकर ही करेंगे।
विधेयकका मंशा भारतीय समाज में फूट पैदा करना है; क्योंकि जिस उम्मीदवार को त्यागा जायेगा वह अगर अपने-आपको दूसरेके बराबर योग्य मानता हो तो अपने भाईके प्रति की गई कृपासे नाराज होगा।
महानुभावने मताधिकार सम्बन्धी अपने खरीतेमें भारतीयोंको मताधिकारका हक देनेवाली तीन योग्यताएँ बताई हैं। वे हैं — शिक्षा, ज्ञान और धन। प्रार्थियों का निवेदन है कि अगर शिक्षा, ज्ञान और धनकी अमुक मात्रा उपनिवेशवासी भारतीयोंके मताधिकार पाने के लिए काफी है तो सपरिषद गवर्नरके हाथोंमें अधिकार सौंपनेके बजाय इसी तरह की कसौटी लागू की जा सकती है। यहाँ हम महानुभावका ध्यान 'नेटाल मर्क्युरी' के अग्रलेखके ऊपर उद्धृत अंशकी ओर आकर्षित करते हैं। अगर विधेयककी मर्यादाके अन्दर आनेवाले लोगोंके लिए आवश्यक योग्यताओं का वर्णन कर दिया जाये तो इससे विधेयकके उस भागका विवादात्मक स्वरूप मिट जायेगा। और तब उसकी मर्यादा में आनेवाले लोगों को ठीक-ठीक ज्ञान रहेगा कि किन योग्यताओं के होनेपर उन्हें मत देनेका अधिकार मिलेगा। ८ मईके 'नेटाल एडवर्टाइजर' में स्थितिको साररूप में भली-भाँति पेश किया गया है :