पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 1.pdf/३९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४९
प्रार्थनापत्र : जो° चेम्बरलेनको

भारतीयोंका मताधिकार छिनवाना चाहते हैं, और स्वयं भारतीयोंकी दृष्टिसे भी असन्तोष-जनक है। किसी भी हालत में, आपके प्राथियोंका दावा है कि उन्होंने यह बतानेके लिए काफी तथ्य और तर्क पेश कर दिये हैं कि विधेयकका फैसला जल्दबाजीमें नहीं होना चाहिए। ऐसा करनेकी कोई जरूरत भी नहीं है। 'नेटाल विटनेस' का खयाल है कि “विधेयकको जल्दबाजी में पास करनेका कोई स्पष्टीकरण — कमसे-कम, कोई सन्तोषजनक स्पष्टीकरण — नहीं किया गया। 'नेटाल एडवर्टाइजर' का मत है कि "भारतीयोंके मताधिकारका यह प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसे हमेशा के लिए तय करनेमें कोई जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए। सबसे अच्छा तरीका तो यह है कि इस विषयको स्थगित कर दिया जाये और चुनाव क्षेत्रोंको, जब उनके सामने सही-सही जानकारी मौजूद हो, इसपर विचार करने दिया जाये।" (२८-३-१८९६)

भारतीय समाजकी भावनाएँ लन्दन 'टाइम्स' के शब्दोंमें भली-भाँति व्यक्त की जा सकती हैं। उस पत्रने (अपने २० मार्च, १८९६ के साप्ताहिक संस्करण में ) कहा है :

भारतीय जिन विदेशों और ब्रिटिश उपनिवेशोंमें काम-धंधे की खोजके लिए जाते हैं वहाँ अगर उन्हें उनको ब्रिटिश प्रजाको हैसियत बरकरार रखते हुए जाने दिया जाये, तो दक्षिण आफ्रिका के विकास में भारतीय मजदूरोंके लिए नई सम्भावनाएँ मौजूद हैं। भारत सरकार और स्वयं भारतीयोंका विश्वास है कि उनकी मान-मर्यादाके प्रश्नका निर्णय दक्षिण आफ्रिकामें ही होना चाहिए। अगर दक्षिण आफ्रिकामें उन्हें ब्रिटिश प्रजाका पद मिल जाता है तो दूसरे स्थानों में देने से इनकार करना लगभग असम्भव हो जायेगा। अगर वे दक्षिण आफ्रिकामें उसे पानमें असफल रहते हैं तो अन्यत्र पाना अत्यन्त कठिन होगा। वे निःसंकोच स्वीकार करते हैं कि भारतीय मजदूर सहायता प्राप्त प्रवासके बदले में निश्चित वर्षोंतक सेवा करनेका जो इकरार करते हैं उसकी शर्तोंको उन्हें पूरा करना ही चाहिए, भले ही इसमें उनके अधिकार कितने ही कम क्यों न हो जाते हों। परन्तु वे मानते हैं कि किसी भी देश या उपनिवेशमें क्यों न बसें, गिरमिटकी अवधि समाप्त कर लेनेपर उन्हें ब्रिटिश प्रजाकी हैसियत प्राप्त करनेका अधिकार है। भारत सरकारका यह माँग करना उचित ही होगा कि भारतीय मजदूरोंको, अपने जीवनका सर्वोत्तम काल दक्षिण अफ्रिकाको अर्पित कर देनेके बाद, उनके उस अपनाये हुए देशमें ब्रिटिश प्रजाकी हैसियत देने से इनकार करके, वापस भारतमें खदेड़ा न जाये। निर्णय कुछ भी हो, उससे भारतीय मजदूरोंके प्रवासको भावी वृद्धिमें गम्भीर बाधा पड़े बिना न रहेगी।

मताधिकारके इस प्रश्नकी, और नेटाल गवर्नमेंट 'गजट' से संकलित तथा अब सही माने जानेवाले आँकड़ोंकी खास तौरसे चर्चा करते हुए वही पत्र ३१ जनवरी, १८९६ के अंक (साप्ताहिक संस्करण) में कहता है :