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लन्दन-दैनन्दिनी

लोग आये थे। सर्वश्री केवल राम, छगनलाल (पटवारी), ब्रजलाल, हरिशंकर, अमूलख, ममानेकचन्द, लतीब, पोपट, भानजी, खीमजी, रामजी, दामोदर, मेघजी, रामजी कालिदास, नारणजी, रणछोड़दास, मणिलाल उन लोगों में शामिल थे। जटाशंकर, विश्वनाथ आदि को भी उनमें शामिल किया जा सकता है। पहला स्टेशन था -- गोंडल। वहाँ डाक्टर भाऊ से भेंट हुई और हमने कपूर भाई को अपने साथ ले लिया। नाथूभाई जेतपुर तक आये। ढोलामें हमें उस्मानभाई मिले और वे वढ़वान तक आये। वहाँ सर्वश्री नारणदास, प्राणशंकर, नरभेराम, आनन्दराय और ब्रजलाल विदाई देने आये थे।

मुझे २१ तारीखको बम्बईसे रवाना होना था। परन्तु बम्बई में जो कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं वे अवर्णनीय हैं। मेरी जातिके लोगोंने मुझे आगे जानेसे रोकने की भरसक कोशिश की। लगभग सभी जानेके विरोधमें थे। और अन्तमें तो मेरे भाई खुशाल भाई और स्वयं पटवारीने भी मुझे न जानेकी सलाह दी। परन्तु मैं उनकी सलाह माननेको तैयार नहीं था। फिर समुद्री मौसमका बहाना आड़े आया। और उससे मेरे जाने में देरी हुई। इसके बाद मेरे भाई और दूसरे लोग मेरे पाससे चले गये । परन्तु मैं अकस्मात् ४ सितम्बर, १८८८ को बम्बईसे रवाना हो गया। इस समय सर्वश्री जगमोहनदास, दामोदरदास और बेचरदासने मेरी बड़ी मदद की। शामलजी का भी निस्सन्देह मैं बहुत आभारी हूँ और रणछोड़लाल का' जो ऋण मुझपर है, मैं नहीं जानता उसके विषय में क्या कहूँ; वह कोरे आभार से तो बड़ी बात है। सर्वश्री जगमोहनदास, मानशंकर, बेचरदास, नारायणदास पटवारी, द्वारकादास, पोपटलाल, काशीदास रणछोड़लाल, मोदी, ठाकुर, रविशंकर, फीरोजशाह, रतनशाह, शामलजी और कुछ अन्य लोग मुझे विदाई देने के लिए 'क्लाइड' जहाज के अन्दर आये। इनमें से पटवारीने मुझे पाँच रुपये,शामलजीने भी उतने ही,मोदी ने दो, काशीदास ने एक, नारणदास ने दो रुपये दिये। कुछ और लोगों ने भी दिये, परन्तु उनकी मुझे याद नहीं आती। श्री मानशंकर ने मुझे चाँदी की एक जंजीर दी और फिर वे सब तीन वर्ष के लिए विदाई देकर चले गये। इस प्रसंगको समाप्त करने के पहले मुझे इतना तो लिखना ही चाहिए कि जिस स्थिति में मैं था,उसमें अगर कोई दूसरा आदमी होता तो उसे इंग्लैंड देख सकना नसीब न होता। जिन कठिनाइयों का सामना मुझे करना पड़ा उन से इंग्लैंड मेरे लिए साधारण स्थिति में जैसा लगता उससे अधिक प्यारा लगने लगा है।

४ सितम्बर, १८८८

समुद्र-यात्रा। लगभग ५ बजे शाम को जहाज का लंगर उठा। यात्रा को लेकर मैं बहुत शंकित था, परन्तु सौभाग्य से वह मेरे अनुकूल पड़ी। सारी यात्रा में मुझे प्रवास-जन्य कष्ट नहीं हुआ और न उलटियाँ हुई। मेरे जीवन में यह पहली जहाज की यात्रा थी। मुझे यात्रा में बड़ा मजा आया। लगभग ६ बजे ब्यालू की घंटी बजी। परिचारक ने मुझे मेजपर जाने की सूचना दी। परन्तु मैं गया नहीं। अपने साथ जो--कुछ लाया था वही

१.रणछोड़लाल पटवारी के साथ गांधीजी की बड़ी घनिष्ठता थी। उनके साथ गांधीजी का पत्र-व्यवहार था और उनके पिता ने गांधीजी को लंदन जाने के लिए आर्थिक सहायता दी थी।