अर्थात् बोलनेवालोंका, दोष बता सकते हैं और अगर मुसलमान कुछ अनुचित कहें तो हिन्दू उनका दोष दिखा सकते हैं। कोई यह नहीं कह सकता कि यह तो सिर्फ अमुक जातिकी ही संस्था है।
[ गुजरातीसे ]
श्री ए० एम० जीवनजीको' दिये गये सम्मानका समाचार हम पिछले सप्ताह दे चुके हैं। ये सज्जन पूर्व आफ्रिकाकी विधान परिषद् (लेजिस्लेटिव कौंसिल) के सदस्य नियुक्त किये गये हैं। पूर्व आफ्रिकाके भाइयोंका यह अधिकार न लिया है, यह देखकर हमें प्रसन्नता हुई है। पूर्व आफ्रिका और अन्य स्थानोंमें यह बात मान्य होती जा रही है कि भारतीय ब्रिटिश साम्राज्यके साझेदार हैं। केवल दक्षिण आफ्रिकाके गोरे ही इसे मंजूर नहीं करते। इन लोगोंको, आफ्रिकाके ही एक हिस्से में भारतीयकी नियुक्तिसे शिक्षा लेनी चाहिए । दक्षिण आफ्रिकाके और ट्रान्सवालके भारतीयोंको भी अपनी स्थितिका भान विशेष रूपसे होना चाहिए। पूर्व आफ्रिकाके भाइयोंके पास अपने अधिकारोंकी रक्षा करने और अपनी सम्पन्नता बढ़ानेके अच्छे साधन हैं । वे उनका लाभ लेंगे ही। हम श्री जीवनजीको, बोहरा जातिको जिसके वे सदस्य हैं और पूर्व आफ्रिकाके भारतीयोंको इस मूल्यवान अधिकारकी प्राप्तिपर बधाई देते हैं ।
[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ८-१-१९१०
इस विषयपर [महा] प्रबन्धकने श्री काछलियाको जो पत्र लिखा है, उससे समाजको भ्रमित नहीं होना है। फिलहाल इन विनियमोंको अमलमें नहीं लाया जायेगा, हमें इससे सन्तोष होनेवाला नहीं है। जिन विनियमोंको लागू ही नहीं किया जाना है, उनसे सरकारको क्या सरोकार है ? श्री काछलियाने इसका उत्तर दे दिया है। देखना है,
१. कराची और बम्बईके एक प्रसिद्ध व्यापारी ।
२. तारीख ३०-१२-१९०९ को दिया गया उक्त जबाब इंडियन ओपिनियन, ८-१-१९१० में उद्धृत किया गया है। उसमें कहा गया है कि “ये विनियम नये नहीं हैं और १९०५ से लगाकर अबतक अमलमें आनेवाले विनियमोंसे भिन्न भी नहीं हैं।" उन्हें "रेलवे विनियम अधिनियम, १९०८, खण्ड ४ का पालन करनेके लिए लागू करना पड़ा है।" इसी उत्तरमें यह आश्वासन भी दिया गया कि इस "कानूनका मंशा भविष्य में भी उसी प्रकार माना जाता रहेगा जिस तरह अतीत में माना जाता रहा है । "
३. देखिए “पत्र : मध्य दक्षिण आफ्रिकी रेलवेके महाप्रबन्धकको ", पृष्ठ १२०-२१ ।
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