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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

कथनका विरोध करेंगे । निःसन्देह इससे भ्रम भी फैलेगा। किन्तु अज्ञान कितना ही प्रबल क्यों न हो, यह तो कोई नहीं कहेगा कि बुद्धिमान शेर चुप बैठा रहे और अपने साथी शेरोंसे अपनी ही जैसी प्रभुता और स्वतन्त्रताका आनन्द लेनेको न कहे ।

मेरे खयालमें यह बात आई है कि यदि कोई एशियाई-विरोधी-संगठन शुद्ध तथापि सर्वथा कुमन्त्रित अभिप्रायसे एशियाइयोंको अभिशाप मानकर ट्रान्सवालसे निर्वासित करना चाहे तो उसके लिए हिंसात्मक साधनों द्वारा अपने उद्देश्यकी पूर्ति करना, उसके अपने दृष्टिकोणसे, अवश्य ही उचित होगा। सत्याग्रहियोंका, यदि वे निर्बल नहीं हैं तो, जिसे वे मनमानी कार्रवाई मानते हैं उसके विरुद्ध शिकायत करना शोभा नहीं देता । उनके लिए तो अपनी अन्तरात्माके विरुद्ध किसी कामके आगे सिर झुकानेकी अपेक्षा निर्वासन या उससे भी बड़ा कोई कष्ट पाना सुखदायी राहत पानेके समान होना चाहिए । मुझे आशा है कि आपने स्वयं जो दृष्टान्त दिया है उसमें आप अनाकामक प्रतिरोधके सौन्दर्यको देखनेसे नहीं चूकेंगे। यदि हम मान लें कि ये निर्वासित व्यक्ति अपने बलात् निर्वासनका शारीरिक प्रतिरोध करनेमें समर्थ थे, और इसके बावजूद उन्होंने निर्वासनका प्रतिरोध करनेके बजाय शुद्ध मनसे निर्वासित हो जाना स्वीकार किया तो क्या इससे यह प्रकट नहीं होगा कि उनका साहस और नैतिक शक्ति ज्यादा ऊँचे दर्जेकी है ?

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २१-५-१९१०

१७८. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

सोमवार [ मई ९, १९१० ]

जेल गये

श्री सैम्युअल जोज़ेफ, श्री ऐंड्र और श्री धोबी नायना, जो केवल कुछ दिन पहले ही रिहा होनेपर निर्वासित किये गये थे, फिर [ ट्रान्सवालमें ] प्रवेश करके गत शुक्रवारको जेल चले गये। आश्चर्यकी बात है कि उन्हें केवल छः सप्ताहकी सजा दी गई है। पहले छः महीनेकी सजा दी जाती थी; फिर तीन मासकी हुई और अब डेढ़ मासकी हो गई। ऐसा क्यों किया जा रहा है, यह मेरी समझमें नहीं आता। सरकार घबरा गई है, यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है। वह सारे काम घबराहटमें कर रही है। संघ-शासन पहली जूनसे आरम्भ होगा। हो सकता है सरकारका इरादा उससे पूर्व डीपक्लूफ जेल खाली करनेका हो । वैसे यह अनुमान-मात्र है। फिर यह प्रश्न भी उठता है कि वह इस प्रकार जेल खाली क्यों कर रही है। देखें, क्या होता है।