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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं आपसे पूर्णतया सहमत हूँ कि एक विशुद्ध अनाक्रामक प्रतिरोधी यह इच्छा नहींकर सकता कि लोग उसे हुतात्मा समझें, न वह जेलके अथवा किसी अन्य प्रकारकेकष्टोंकी शिकायत कर सकता है और न जो उसे अन्याय या दुर्व्यवहार प्रतीत होताहै उसका राजनीतिक लाभ उठा सकता है। फिर सत्याग्रहके किसी मामलेका प्रचारकरनेका सवाल ही नहीं उठता। परन्तु दुर्भाग्यवश सभी कामोंमें मिलावट होती है।शुद्धतम अनाक्रामक प्रतिरोध केवल सिद्धान्त रूपमें ही मिल सकता है। जो असंगतियाँ आपने बताई हैं वे इस बातकी पुष्टि ही करती हैं कि ट्रान्सवालके भारतीय अनाक्रामक प्रतिरोधी ऐसे मानव प्राणी हैं जिनसे बहुत गलतियाँ हो सकती हैं और अब भी वे बहुत दुर्बल हैं। किन्तु मैं आपको विश्वास दिला सकता हूँ कि उनका उद्देश्य अपने आचरणको यथासम्भव शुद्ध अनाक्रामक प्रतिरोधके अधिकसे-अधिक अनुरूप बनाना है। और ज्यों-ज्यों संघर्ष बढ़ता जाता है हमारे बीचमें निश्चय ही शुद्ध आत्माएँ उत्पन्नहोती जाती हैं।

मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि सभी सत्याग्रही प्रेम या सत्यकी भावनासे अनुप्राणित नहीं हैं। निस्सन्देह, हममें से कुछ ऐसे हैं जो प्रतिरोध या घृणाकी भावनासे मुक्त नहीं हैं। परन्तु हम सबकी यह इच्छा है कि हम अपने आपको घृणा या वैरकी भावनासे मुक्त करें। मैंने यह भी देखा है कि जो आन्दोलनके नयेपनकी चकाचौंधके कारण या किसी स्वार्थवश अनाक्रामक प्रतिरोधी बन गये थे वे बादमें अलग हो गये। दिखावटी कष्ट-सहन लम्बे समय तक नहीं चल सकता। ऐसे लोग अनाक्रामक प्रतिरोधी कभी नहीं थे। अनाक्रामक प्रतिरोधीके विषयमें कुछ तटस्थ भावसे विचार करनेकी आवश्यकता है। आप जो यह कहते हैं कि सैनिकोंका शारीरिक कष्ट सहन ट्रान्सवालके अनाक्रामक प्रतिरोधियोंकी तुलनामें कहीं अधिक रहा है सो इसमें मैं आपसे पूर्णतया सहमत हूँ। किन्तु जो जानबूझकर घघकती चिताओंमें या उबलते तेलके कढ़ाहों में कूद गये उन विश्वविख्यात अनाक्रामक प्रतिरोधियोंका कष्ट-सहन किसी भी सैनिकके कष्ट सहनसे अपेक्षाकृत अधिक था।

टॉलस्टॉयने पशुबलसे संगठित और उसीपर आधारित संस्थाओं, अर्थात् सरकारोंकीबड़ी निर्ममतापूर्वक आलोचना की है। मैं उनकी ओरसे कुछ कहनेका दावा नहीं करसकता; लेकिन उनकी कृतियाँ पढ़कर मैं कभी इस निष्कर्षपर नहीं पहुँचा कि वेऐसा मानते या सोचते हैं कि सारा संसार एक दार्शनिक अराजकताकी अवस्था में रहनेमें समर्थ होगा। उन्होंने जो उपदेश दिया है, और जैसा कि मेरी रायमें विश्वके समस्त उपदेशकोंने दिया है, वह यह है कि प्रत्येक मनुष्यको स्वयं अपनी अन्तरात्माकी आवाज सुननी चाहिए, स्वयं अपना स्वामी होना चाहिए और स्वयं अपने अन्तरमें ईश्वरका राज्य खोजना चाहिए। टॉलस्टॉयके अनुसार ऐसी कोई सरकार नहीं है जो उनकी सहमतिके बिना उनपर नियन्त्रण रख सके। ऐसे पुरुषकी सत्ता समस्त सरकारोंसे बड़ी है। और एक शेर यदि दूसरे शेरोंके एक ऐसे समूहको, जो अज्ञानवश अपनेको भेड़ समझते हैं, यह बताये कि वे भी भेड़ें नहीं, बल्कि शेर हैं, तो क्या इसमें कोई खतरेकीबात हो सकती है? इसमें सन्देह नहीं कि कुछ महा अज्ञानी शेर उस बुद्धिमान शेरके