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१. प्रस्तावना : टॉल्स्टॉयके 'एक हिन्दूके नाम पत्र' की

एस० एस० किल्डोनन कैसिल,
नवम्बर १८, १९०९

नीचे जिस पत्रका' [गुजराती] तर्जुमा दिया जा रहा है, उसके सम्बन्धमें कुछ स्पष्टीकरणकी जरूरत है।

काउंट टॉल्स्टॉय रूसके एक रईस हैं। वे सांसारिक सुखोंका पर्याप्त उपभोग कर चुके हैं, स्वयं एक वीर योद्धा रहे हैं और यूरोपमें लेखकके रूपमें उनकी बराबरी करनेवाला कोई देखने में नहीं आता। वे बहुत अनुभव प्राप्त करने और अध्ययन करनेके बाद इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि संसारमें साधारणतया जो राजनीति प्रचलित है वह दोषपूर्ण है। उसका मुख्य कारण उनके मतसे यह है कि हम लोगोंमें बदला लेनेकी जो टेव है, वह अशोभनीय है; और सब धर्मों के विरुद्ध है। वे मानते हैं कि हम अपने नुकसान पहुंचानेवालेको नुकसान पहुंचायें तो इससे दोनोंकी हानि होती है। उनके विचारके अनुसार तो जो हमें मारे उसकी मार हमें सहन करनी चाहिए और उसका बदला हमें उस व्यक्तिके प्रति प्रेम दिखा कर लेना चाहिए। वे बुराईके बदले भलाई करनेके नियमपर बहुत दृढ़तासे आरूढ़ हैं।

ऐसा कहनसे उनका तात्पर्य यह नहीं है कि जिसपर कोई कष्ट आये वह उसका कोई उपाय ही न करे। उनकी मान्यता यह है कि अपने दुःखके कारण स्वयं हम ही हैं। अगर हम जुल्म करनेवालेके जुल्मके आगे न झुकें तो वह जुल्म नहीं कर सकता। साधारणतया कोई भी व्यक्ति मुझे अपने दिल-बहलावकी खातिर लात नहीं मारेगा। ऐसा करनेका कोई-न-कोई सबब होगा। यदि मैं उसकी इच्छाके विरुद्ध चलं तो वह उसे मनवानेके लिए मझे लात मारेगा। यदि मैं उसकी लात खाकर भी न मानें तो फिर वह मझे मारना बन्द कर देगा। वह बन्द करे या न करे, मुझे उसकी परवाह नहीं होगी। उसकी आज्ञा न्यायपूर्ण नहीं है, मेरे लिए तो इतना काफी है। गुलामी अन्यायपूर्ण आज्ञा मानने में है, लात खानेमें नहीं। लात खानेपर भी हम बदलेमें लात न मारें, यही सच्ची वीरता और सच्ची मनुष्यता है। टॉल्स्टॉयकी शिक्षाका मूल-मन्त्र यही है।

आगे जिस पत्रका तर्जुमा दिया गया है वह मूलतः रूसी भाषामें है। उसका अंग्रेजी में अनुवाद स्वयं टॉल्स्टॉयने किया' और 'फ्री हिन्दुस्तान" के सम्पादकको उनके १. यह प्रस्तावना टॉलस्टॉयके १४-१२-१९०८ के पत्रके गांधीजी द्वारा किये गये गुजराती अनुवादकी है। २. यहाँ नहीं दिया गया है। ३. स्टायके अनुवादकोंमें से एक अनुवादक द्वारा देखिए अगला शीर्षक ।। ४.वेंकूवरसे प्रकाशित एक पत्रिका जिसके प्रधान सम्पादक तारकनाथ दास थे। देखिए खण्ड ९, पादटिप्पणी १, पृष्ठ ४४४ ।