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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

सम्पूर्ण गांधी वाङमय पत्रके उत्तरमें भेजा है। 'फ्री हिन्दुस्तान' के सम्पादकके विचार टॉल्स्टॉयके विचारोंसे भिन्न हैं। उन्होंने वह पत्र नहीं छापा। एक मित्रने वह पत्र मेरे पास भेजकर पूछा कि उसे 'इंडियन ओपिनियन' में प्रकाशित करनेके बारेमें मेरी क्या राय है। पत्र पसन्द आया। मुझे जो पत्र मिला था वह मूल पत्रकी नकल थी। मैंने वह पत्र टॉल्स्टॉयको भेजा और उसको छापनेकी मंजूरी माँगी और मैंने उनसे यह भी पूछा कि वह पत्र उनका है या नहीं।' उन्होंने मंजुरी दे दी। इसलिए वह अंग्रेजी पत्र और उसका गजराती तर्जुमा दोनों 'इं० ओ० में छापे जा रहे हैं।

मैं टॉल्स्टॉयके पत्रको कीमती मानता हूँ। जिसने ट्रान्सवालकी लड़ाईका रस चखा है, वह उस पत्रकी कीमत सहज ही समझ सकेगा। ट्रान्सवालकी सरकारके तोप-बलके मुकाबलेमें मुट्ठी-भर भारतीय सत्याग्रह, प्रेमबल या आत्मबलकी आजमाइश कर रहे हैं। यह टॉल्स्टॉयकी शिक्षाका रहस्य है। यह सभी धर्मोंका सार है। हमारी आत्मामें - रूहमें, परमात्माने - खुदाने, ऐसी शक्ति दी है कि उसकी तुलनामें निरा शारीरिक बल किसी काम नहीं आता। हम आत्मबलको व्यवहारमें लाते हैं, सो ट्रान्सवालकी सरकारका तिरस्कार करने या उससे बदला लेनेके लिए नहीं, बल्कि केवल इसलिए कि हमें उसकी अन्यायपूर्ण आज्ञा नहीं माननी है।

किन्तु जिन्होंने सत्याग्रहका रस नहीं चखा, जो आधुनिक सभ्यताके महापाखण्डमें वैसे ही चक्कर काटते हैं जैसे पतंगे दीपकके आसपास चक्कर काटते रहते हैं, उनको टॉल्स्टॉयके पत्र में एकाएक रस नहीं आयेगा। ऐसे लोगोंको जरा धैर्यसे विचार करना चाहिए।

जो भारतीय भारतसे गोरोंको निकाल बाहर करनेके लिए अधीर हो रहे हैं उन्हें टॉल्स्टॉय सीधा-सा जवाब देते हैं। [उनके कथनानुसार हम अपने ही गुलाम हैं, अंग्रेजोंके नहीं। यह हदयमें अंकित कर लेने योग्य बात है। यदि हम गोरोंको न चाहें तो वे नहीं रह सकते। यदि गोला-बारूदसे गोरोंको निकालना हो तो गोला-बारूदसे यूरोपके हाथ क्या लगा, इसपर हरएक भारतीयको विचार करना चाहिए।

भारत स्वतन्त्र हो यह बात सबको अच्छी लगती है, किन्तु वह स्वतन्त्र कैसे हो इस सम्बन्धमें जितने लोग उतने मत हैं। उनको टॉल्स्टॉयने सीधा मार्ग बताया है।

यह पत्र टॉल्स्टॉयने एक हिन्दूको लिखा है, इसलिए इसमें मुख्यतः हिन्दू धर्मग्रन्थोंके विचारोंका उपयोग दिया गया है। किन्तु ऐसे विचार हरएक धर्मके ग्रंथोंमें हैं। ये विचार हिन्दू, मुसलमान और पारसी सबपर लागू होते हैं। धर्मोके आचार-विचार जुदा हो सकते हैं। किन्तु उनके नैतिक सिद्धान्त तो एक ही होते हैं। इसलिए सभी पाठकोंको मैं धर्मनीतिपर विचार करनेकी सलाह देता हूँ। १. देखिए खण्ड ९, पृष्ठ ४४४ । २.देखिए खण्ड ९, परिशिष्ट २७ । ३.२५-१२-१९०९, १-१-१९१० और८-१-१९१० ।