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३११. पत्र : मगनलाल गांधीको
टॉल्स्टॉय फार्म
कार्तिक सुदी ९ [ नवम्बर ११, १९१० ]
तुमने मुझसे जिस पत्रका जिक्र किया था उसे मैंने आज देखा ।
नारणदासने तुम्हारी मार्फत पत्र भेजनेको लिखा, इस बातपर मैंने ऐसी कोई टीका नहीं की कि यह भीरुता है । मेरे मनमें ऐसा खयाल तक न था । उसके इस प्रश्नके उत्तर में कि उसे क्या करना चाहिए, मैंने उसे यह लिखा था कि सबसे पहले 'अभयं सत्वसंशुद्धिः "" के अनुसार अभय सिद्ध करना चाहिए। मैंने यह बात ऐसा समझकर लिखी थी कि यदि वह कोई सार्वजनिक कार्य करना चाहता हो तो उसे सबसे पहले इसी गुणको साधना चाहिए। सच्ची सार्वजनिक सेवा तभी सम्भव है. जब मान-मर्यादा, धन-सम्पत्ति, जाति, स्त्री, कुटुम्बीजन और मृत्युके सम्बन्धमें निर्भयता आ जाती है । और तभी मोक्ष-रूपी पुरुषार्थं सिद्ध किया जा सकता है ।
चूंकि नारणदासको अलगसे पत्र लिखनेका अवकाश नहीं है इसलिए इसीको उसके पास भेज देना । प्रेसके सम्बन्धमें समय मिलनेपर बादमें लिखूंगा । मणिलालका क्या हाल है, सूचित करना ।
मोहनदासके आशीर्वाद
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू० ४९४१) से । सौजन्य : राधावेन चौधरी ।
१. यह पत्र २९-३-१९१० को नारणदास गांधीके नाम लिखे पत्र (देखिए पृष्ठ २१३-१४ ) के पश्चात् लिखा गया जान पड़ता क्योंकि उस पत्रमें गांधीजीने 'अभय' पर अपने विचार प्रकट किये थे । १९१० में कार्तिक सुदी नवमी, अंग्रेजी तारीख ११ नवम्बरको पड़ी थी ।
२. देखिए " पत्र : नारणदास गांधीको ”, पृष्ठ २१३-१४ ।
३. भगवद्गीताके १६ वें अध्याय में 'अभय' को दैवी गुणोंमें प्रथम स्थान दिया गया है।