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प्रस्तावना : टॉलस्टॉयके एक हिन्दूके नाम पत्र 'की

यदि हम चाहते हैं कि अंग्रेज भारतमें न रहें तो हमें उसकी कीमत चुकानी पड़गी। टॉल्स्टॉय उसकी ओर इंगित करते हैं। यास्नाया पोल्यानाके साथ गहरे विश्वासके साथ घोषित करते हैं :-

बुराईका प्रतिरोध न करें, परन्तु साथ ही यदि स्वयं बुराईमें, न्यायालयोंके कार्योंमें, कर-संग्रहमें तथा जो बात और भी महत्त्वपूर्ण है उसमें--सैनिकोंके हिंसक कार्योंमें-- भाग न लें; तो आपको संसारको कोई ताकत गुलाम नहीं बना सकेगी। उनके इस कथनकी सचाईमें कौन सन्देह कर सकता है कि एक व्यापारी कम्पनीने बीस करोड़ लोगोंके राष्ट्रको गुलाम बना लिया। यदि ऐसे किसी व्यक्तिसे जो अन्धविश्वासी न हो यह बात कहिए तो वह नहीं समझ सकेगा कि इन शब्दोंका अर्थ क्या है? तीस हजार लोगोंने--जो पहलवान नहीं थे, बल्कि कमजोर और बीमारोंजैसे दीखते थे--२० करोड़ शक्तिशाली, बुद्धिमान, बलिष्ठ और स्वातन्त्र्य-प्रिय लोगोंको गुलाम बना लिया, इसका रहस्य क्या है? क्या इन आँकड़ोंसे स्पष्ट नहीं हो जाता कि भारतीयोंको अंग्रेजोंने गुलाम नहीं बनाया बल्कि वे स्वयं ही गुलाम बने हैं।

वर्तमान व्यवस्थाकी इस आलोचनाके सार-तत्वकी सचाईको हृदयंगम करनेके लिए यह आवश्यक नहीं कि टॉल्स्टॉयने जो-कुछ कहा है-उनके कुछ तथ्य सही नहीं हैं-उस सबको स्वीकार किया जाये। वह सार-तत्व है शरीरपर आत्माकी, और हमारे भीतर वासनाओंके उद्वेलनसे उत्पन्न पाशविक या शारीरिक शक्तिपर प्रेमकी, जो आत्माका ही एक गुण है, अमोघ शक्तिको समझना और उसके अनुसार आचरण करना।

इसमें सन्देह नहीं कि टॉल्स्टॉयने जो-कुछ कहा है, उसमें कुछ नया नहीं है। परन्तु पुरातन सत्यको प्रस्तुत करनेका उनका ढंग स्फूर्तिदायक और ओजपूर्ण है। उनका तर्क अकाट्य है। और सबसे बड़ी बात यह है कि वे अपने उपदेशोंके अनुसार आचरण करनेका प्रयास करते हैं। वे अपनी बात कुछ इस तरहसे कहते हैं कि उसपर विश्वास हए बिना नहीं रहता। वे सत्यशील और निष्ठावान हैं और वे बरबस अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर लेते हैं।

मो० क० गांधी
 

[अंग्रेजीसे]

इंडियन ओपिनियन, २५-१२-१९०९

१. देखिए. पाद-टिप्पणी १, पृष्ठ ३ ।

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