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३३०. मॉरिशसके दुखी गिरमिटिया

कुछ दुखी भारतीयोंके कष्टोंका विवरण हमने अन्यत्र' छापा है । वह ध्यान देने योग्य है । उसे पढ़कर पाठकोंके मनमें गिरमिट प्रथाके बन्द किये जानेकी आवश्यकताके बारेमें सन्देह नहीं रह जाना चाहिए। बार-बार होनेवाली ऐसी घटनाएँ हर बार यही स्पष्ट करती हैं कि इस प्रथाको गुलामीसे भिन्न न मानना ठीक ही है । अपने देशवासियोंके ऐसे कष्टोंके बारेमें पढ़कर किस भारतीयका हृदय काँप न उठेगा ? इन्हें दूर कराये बिना भारतीय प्रजा चैनसे नहीं बैठ सकती ।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २६-११-१९१०

३३१० पत्र : मगनलाल गांधीको

कार्तिक वदी १० [ नवम्बर २६, १९१० ]

चि० मगनलाल,

कन्हैयालालकी निराशापर मुझे ताज्जुब नहीं हुआ। फिर भी ऐसा माननेका कोई कारण नहीं है कि अंग्रेजोंकी संस्थाएँ अधिक अच्छी तरह चलती हैं। यह ठीक है कि उनकी संस्थाएँ ठीक चलती हुई जान पड़ती हैं। उसका कारण यह है कि इस प्रकारकी संस्थाएँ आधुनिक सभ्यताकी उपज हैं । उस प्रकारकी सभ्यतामें वे अधिक कुशल हैं, इसलिए उस तरहकी संस्थाओंको भी अधिक अच्छी तरह चला सकते हैं। हमारा आर्य-समाज आम लोगोंके लिए नहीं है । वह तो केवल पढ़े-लिखे लोगोंके लिए है । कहा जा सकता है कि अंग्रेजी संस्थाएँ एक हद तक आम जनताके लिए होती हैं; क्योंकि वहाँकी आम जनता भी आधुनिक सभ्यताके दायरेमें आ गई है। इस कारण उनकी संस्थाओं में एक तरहका अनुशासन रह पाता है। इसके सिवा वे 'ऑनेस्टी' को 'बेस्ट पॉलिसी' की तरह मानते हैं और 'पॉलिसी' के विचारसे 'ऑनेस्टी' का पालन करते हैं। हम तो 'ऑनेस्टी' के लिए ही 'ऑनेस्ट' रहनेवाले लोग हैं। किसी नीतिके विचारसे ईमानदार बना रहना हमारे बसकी बात नहीं है। और फिर हम लोगोंमें, अर्थात् शिक्षित समुदायमें यह वृत्ति जरूर पाई जाती है कि यदि हम किसी पदपर हैं और उसके बलपर तत्काल स्वार्थ-साधन किया जा सकता हो, तो हम जल्दीसे-जल्दी १. यहाँ नहीं दिया गया है । २. पत्रके अन्तिम अनुच्छेद में उल्लिखित नये कानूनले सम्बन्धित विधेयक फरवरी १९११ में संसद में पेश किया गया था । इसके पहले कार्तिक वदी १०, नवम्बर २६, १९१० को पड़ी थी।