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हिन्द स्वराज्य

तो स्वराज्य दूर है। यदि आप जैसे भारतीय अधिक हो जायें तो हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे। यह बात तनिक सोचने योग्य है ।

पाठक: मुझे तो लगता है कि आप इस तरह गोल-मोल बातें करके मेरे प्रश्नको उड़ा देना चाहते हैं। आप जिनको भारतका उपकारी मानते हैं उन्हें मैं ऐसा नहीं मानता । फिर मुझे किसके उपकारकी बात सुननी है ?? आप जिन्हें भारतका राष्ट्र- पितामह कहते हैं, उन्होंने क्या उपकार किया है ? वे तो कहते हैं कि अंग्रेज शासक न्याय करेंगे; हमें उनके साथ मिलकर रहना चाहिए !

सम्पादक: मैं आपसे विनयपूर्वक कहना चाहता हूँ कि इस पुरुषके बारेमें आपका वेअदबीसे बोलना हमारे लिए शरमकी बात है। उनके कार्योंपर नजर डालिए। उन्होंने अपना जीवन भारतको अर्पित कर दिया है। हमने यह सबक उनसे ही सीखा। माननीय दादाभाईने ही हमें बताया कि अंग्रेजोंने भारतका खून चूस लिया है। आज वे अंग्रेजोंपर विश्वास करते हैं, तो क्या हुआ। यदि हम जवानीके जोशमें एक कदम आगे बढ़ जायें तो क्या इससे दादाभाई कम पूज्य हो गये ? क्या इससे हम ज्यादा ज्ञानी हो गये ? नसेनीकी जिस सीढ़ीसे हम ऊपर पहुँचे हैं उसे लात न मारना बुद्धिमानी है। यह याद रखना चाहिए कि उसे ठोकर मारना समूची नसेनीको गिरा देना है। हम बचपनसे जवानीमें आते हैं तो बचपनका तिरस्कार नहीं करते, बल्कि उन दिनोंको प्यारसे याद करते हैं। यदि कोई वर्षों तक पढ़कर मुझे पढ़ाये और फिर उसके आधार- पर मैं कुछ ज्यादा जान लूं तो मैं अपने शिक्षकसे बड़ा तो नहीं हो गया। अपने शिक्षकका मान तो मुझे करना ही चाहिए । भारतके पितामहके बारेमें भी यही समझना योग्य है । यह तो हमें कहना ही होगा कि भारतीय जनता उनके पीछे है।

पाठक: यह आपने ठीक कहा । श्री दादाभाईको मान दिया जाये, यह बात तो समझ में आ सकती है। यह भी सही है कि उनके और उन जैसे पुरुषोंके कामके बिना हममें आजका उत्साह न होता । परन्तु ऐसा प्रोफेसर गोखलेके बारेमें कैसे माना जा सकता है ? वे तो अंग्रेजोंके बड़े सगे बने बैठे हैं। वे तो कहते हैं कि हमें अंग्रेजोंसे बहुत सीखना है; उनकी राजनीतिसे परिचित हो जानेपर ही स्वराज्यकी बातकी जा सकती है। इन महाशयके भाषणोंसे मैं तो बिलकुल ऊब गया हूँ ।

सम्पादक : आपका ऊबना, आपकी उतावली प्रकृतिका द्योतक है। परन्तु हम ऐसा मानते हैं कि जो नौजवान अपने माता-पिताकी ठण्डी प्रकृतिसे ऊब जाते हैं और वे उनके साथ नहीं दौड़ें तो नाराज होते हैं, वे अपने माता-पिताका अनादर करते हैं। ऐसा ही हमें प्रोफेसर गोखलेके बारेमें भी मानना चाहिए। प्रोफेसर गोखले हमारे साथ नहीं दौड़ें तो क्या होता है ? स्वराज्य भोगनेकी इच्छा करनेवाली जनता अपने बुजुर्गोंका तिरस्कार नहीं कर सकती। यदि आदर करनेकी हमारी आदत नष्ट हो जाये तो हम निकम्मे हो जायेंगे। स्वराज्यका उपभोग प्रौढ़ बुद्धिके लोग ही कर सकते हैं, न कि उच्छृंखल। फिर देखिए, जब प्रोफेसर गोखलेने अपने-आपको भारतीय शिक्षणके लिए

१. अंग्रेजी पाठमें- फिर ऐसे व्यक्तियोंके विषय में आपका व्याख्यान मैं क्यों सुनूँ ?” २. अंग्रेजी पाठमें— "हमें मानना होगा कि राष्ट्रीयताकी भावनाके जनक वे ही हैं । "