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४०४. पत्र : एच० एस० एल० पोलकको

[ जोहानिसबर्ग ]
मार्च ८, १९११

प्रिय पोलक,

आज मेरे पास कार्यकी प्रगतिके बारेमें सूचित करने लायक कोई बात नहीं है। मैं आपके प्रश्नके सम्बन्धमें अपनी राय 'तार द्वारा आपको भेज चुका हूँ।' मैंने कल शाम और आज सबेरे भी विधेयकके सातवें खण्डपर बड़ी सावधानीसे विचार किया था । इसलिए मैं आपके तारका उत्तर देनेकी स्थितिमें था । मैं ग्रेगरोवस्कीकी इस रायसे सहमत नहीं हूँ कि नये विधेयकके अन्तर्गत संघके भीतर शैक्षणिक कसौटी नहीं रह जायेगी । लेकिन यदि यह सच हो तो भी खण्ड ७ के अन्तर्गत ट्रान्सवालसे नेटाल या केप जानेवाले भारतीय उन प्रवासी कानूनोंमें, जिनको अब रद किया जाना है, रखी गई शैक्षणिक कसौटीके आधारपर रोक दिये जायेंगे। पर यदि वर्तमान विधे- यकके पास हो जानेपर ये कानून प्रभावहीन हो जायेंगे, और यदि ग्रेगरोवस्कीकी बात ही सही हो, तो ट्रान्सवालके भारतीय बिना किसी बाधाके केप या नेटालमें प्रवेश पा सकेंगे, क्योंकि वहाँके एशियाई कानून सिवा चीनियोंके और किसीपर लागू नहीं होते । मुझे नहीं लगता कि सातवें खण्डके द्वारा नेटालके उन भारतीयोंके अधिकार सुरक्षित होते हैं, जिनका जन्म उपनिवेशमें हुआ है । यदि केपका प्रवासी कानून रद हो जाता है तो उपनिवेशमें जन्मे वे भारतीय, जो उस समय तक केपमें प्रवेश नहीं कर चुके हों, शैक्षणिक कसौटीपर खरे उतरे बिना केपमें निश्चय ही प्रवेश नहीं पा सकेंगे; क्योंकि केपके प्रवासी कानूनके अन्तर्गत प्राप्त होनेवाले अधिकार उन्हें नहीं मिले होंगे; और इसलिए प्रवासी विधेयकके अन्तर्गत बच रहनेवाला अधिवासका अधिकार कोई सम्भाव्य अधिकार नहीं, बल्कि एक ऐसा अधिकार है जिसका वास्तवमें उपयोग हो रहा है । कह नहीं सकता कि मैं कानूनी स्थितिकी स्पष्ट व्याख्या कर पाया हूँ या नहीं । आज मैं वेस्टको कुछ भी नहीं भेज रहा हूँ ।

हृदयसे आपका,

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ५२५६) की फोटो नकलसे ।

१. देखिए " तार : इंडियन ओपिनियनके सम्पादकको ", पृष्ठ ४७२ ।