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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चाहें भी तो व्यापार करनेके अनुमतिपत्र न ले सकें। अब, यदि वे स्वाभिमानी हैं। और व्यापारिक अनुमतिपत्र नहीं लेना चाहते तो यह एक अलग बात है; परन्तु कानूनी निर्योग्यताका शिकार बना रहना सर्वथा दूसरी बात है । हम शिक्षित प्रवासियोंके लिए उससे अच्छे दर्जेकी माँग कर रहे हैं, जो निवासियोंको आज प्राप्त है । हम उनके लिए निवासियोंको प्राप्त दर्जेसे घटिया कानूनी दर्जा भला अब कैसे स्वीकार कर सकते हैं ? उनके पत्रके तीसरे अनुच्छेदसे यह इरादा प्रकट होता है कि वे पत्नियों और बच्चोंको बरी करनेवाली बात विधेयकमें स्पष्ट शब्दोंमें नहीं कहना चाहते ताकि वे हमारे मार्गमें तरह-तरहकी कठिनाइयाँ उपस्थित कर सकें। यदि आवश्यकता पड़े तो आप इस मुद्देको लोगोंके गले उतारने में ग्रेगरोवस्की और लॉटनकी रायोंका उपयोग करनेमें न झिझकें, क्योंकि जो कुछ हो रहा है, उसे देखते हमें, जहाँतक हमारे उठाये हुए मुद्दोंका सम्बन्ध है, इस बातका आग्रह करना चाहिए कि विधेयकका निश्चित अर्थ बताया जाये। जबतक प्रगतिवादीदल ठोस रूपसे अपने कर्तव्यका पालन नहीं करना चाहता और जबतक मेरीमैन जैसे राष्ट्रवादी और कतिपय अन्य व्यक्ति हमारे पक्षका समर्थन न करें, विधेयक सन्तोषजनक नहीं होगा । उस अवस्थामें, मुझे लगता है, उसे शाही स्वीकृति नहीं प्राप्त होगी ।

हृदयसे आपका,

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ५३२९) की फोटो नकलसे ।

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४५४. पत्र : एच० एस० एल० पोलकको

मार्च २०, १९११

प्रिय पोलक

रिचके पत्रमें मैंने जो कुछ कहा है, मेरे पास उससे अधिक कहनेको नहीं है । केपके प्रार्थनापत्रकी' एक प्रति मैंने सीधे वेस्टके पास भेज दी है । आगेका पत्र-व्यवहार भी, जो मैं आपके पास भेज रहा हूँ, छपना चाहिए। आशा है, कल इसपर मैं एक अग्रलेख लिख सकूँगा । मैं माने लेता हूँ कि रिचके स्वागतके समय लॉर्ड ऍम्टहिल और अन्य लोगोंके जो भाषण' हुए थे, वे छपेंगे। आज एक तार इस आशयका मिला कि रिचके श्वसुरकी मृत्यु हो गई है। यह दुःखका विषय तो है, लेकिन इससे उतना ही हर्ष भी होना चाहिए; क्योंकि श्री कोहेन जीते-जी जो मौत भोग रहे थे, उससे मुक्त हो गये हैं ।

हृदयसे आपका,

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ५३२५) की फोटो नकलसे ।

.१. देखिए " पत्र : एल० डब्ल्यू० रिचको”, पृष्ठ ५१५-१६ । २. यह इंडियन ओपिनियनके २५-३-१९११ वाले अंकमें प्रकाशित हुआ था। देखिए परिशिष्ट ९ । ये इंडियन ओपिनियन के २५-३-१९११ के अंक में प्रकाशित हुए थे । ३.