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परिशिष्ट ५ डब्ल्यू ० जे० वाइबर्गका पत्र गांधीजीको

जोहानिसबर्ग
मई ३, १९१०

प्रिय श्री गांधी,

आपका पत्र मिला 'इंडियन होमरूल' ('हिन्द स्वराज्य' ) पर आपकी पुस्तिका भी प्राप्त हुई । अनेक धन्यवाद । पिछले कुछ दिनोंको छोड़कर बहुत अधिक काममें लगे रहनेके कारण मैं आपकी पुस्तिकाको ठीक तरहसे देख नहीं पाया हूँ । उसकी आलोचना मर्यादित आकारके लेखमें समुचित रूपसे कर सकना मुझे बहुत कठिन जान पड़ता है क्योंकि मेरी समझमें न तो आपका तर्क कुल मिलाकर संगतिपूर्ण है और न आपके वक्तव्यों और आपके द्वारा व्यक्त सम्मतियोंके बीच कोई वास्तविक सम्बन्ध है । और यह बात भी है कि मैं भारतकी वास्तविक परिस्थितियोंसे, स्वभावत: अनभिज्ञ-सा हूँ । अतएव, आप जिन अनेक तथ्योंको सही मान बैठे प्रतीत होते हैं और जिन्हें आपने अपने तर्कका आधार बनाया है, उनके यथार्थ या गलत होनेके बारेमें मैं अपनी राय देनेकी धृष्टता करते हुए डरता हूँ । हाँ; इतना जरूर कहूँगा कि वस्तुस्थिति-सम्बन्धी अनेक प्रश्नोंपर आपका कथन प्रचलित धारणासे मेल नहीं खाता। सबसे पहले मैं राजभक्तिको ही लेता हूँ । मुझे यह कहना ही होगा कि यद्यपि आप साधारणतया अपने ऊपर गैर- वफादारीका स्पष्ट आरोप मढ़े जानेका अवसर नहीं देते, परन्तु आपके तर्कोंमें सूक्ष्म संकेतों और सन्दिग्ध वाक्योंकी भरमार है; उसमें कहने योग्य इतनी बातें बिना कहे छोड़ दी गई हैं और जगह-जगह अर्थ सत्यका इतना प्रयोग किया गया है कि यदि कोई पाठक आपकी पुस्तकको बहुत खतरनाक मान बैठे तो मुझे जरा भी ताज्जुब न होगा । माना, कि गैरवफादारी आपका मंशा नहीं है, फिर भी मुझे यकीन है कि साधारण बुद्धिवाला सीधा-सादा आदमी, जो वालकी खाल निकालनेमें प्रवीण नहीं है, यही सोचेगा कि आप भारतमें ब्रिटिश शासनके विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं । इसका कारण यह है कि आप उन सभी बातोंपर प्रहार करते हैं जिसे वह बेचारा ब्रिटिश शासन से अभिन्न मानता है। आप हिंसाको बढ़ावा नहीं देते, सो ठीक है परन्तु आप यह केवल इसलिए करते हैं कि आपकी समझसे आपकी वांछित वस्तुके लिए हिंसा प्रभावहीन और अनुपयुक्त है; न कि इसलिए कि वांछित वस्तु गलत है ।

आप अपनी पुस्तकमें इस सबसे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण जिस सामान्य सिद्धान्तको लेकर चले हैं; मेरा ख़याल है, उसके विषयमें निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि आप गलतीपर है। पाश्चात्य संस्कृतिर्मे बहुत-से दोष है और आपकी अनेक आलोचनाओंसे मैं सहमत हूँ; परन्तु मैं यह नहीं मान सकता कि वह " शैतानकी सल्तनत है या उस संस्कृतिको मिटा दिया जाना चाहिए। मेरे विचारसे मानव-जातिके विकास-क्रममें यह सभ्यता एक आवश्यक कड़ी है और इसकी अभिव्यक्ति पाश्चात्य देशों में विशेष रूपसे हुई है तथा यह इन देशोंके लिए उपयुक्त है । यद्यपि मैं यह स्वीकार करता हूँ कि भारतके ( यूरोपके भी) सर्वोच्च आदर्श इस संस्कृतिसे आगे बढ़े हुए हैं; फिर भी नम्रताका पूरा ध्यान रखते हुए मेरा निवेदन है कि भारतकी अधिकांश जनताको भौतिक और बौद्धिक स्फूर्ति, स्पर्धा तथा अन्य साधनोंके चाबुक लगाकर जगानेकी आवश्यकता है और ये बातें 'सभ्यता' से प्राप्य हैं। आप 'स्वतन्त्रता को तत्काल प्राप्त करने योग्य धार्मिक एवं आध्यात्मिक लक्ष्य मानते हैं और लगभग उसी रूपमें उसका प्रचार कर रहे हैं; क्योंकि आपने अपनी पुस्तिकाके १६ वें और १ वें परिच्छेदोंमें जिस स्वदेशी शब्दका प्रतिपादन किया है और