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परिशिष्ट

समूची पुस्तिका जिसे स्पष्ट किया है उसका सर्वोत्तम और वास्तिक अर्थ यही तो है ? हो सकता है कि आप व्यक्तिगत रूपसे और दूसरे भी व्यक्तिगत रूपसे ऐसी मंजिलपर पहुँच चुके हों जहाँ इसे तत्काल प्राप्त करने योग्य आदर्श मानना उचित हो । परन्तु मानव समाजका अधिकांश भाग उस मंजिल तक नहीं पहुँच पाया है। मैं श्रीमती बेसेंटकी इस बात से सहमत हूँ कि ऐसे लोगोंको जो ' स्वतन्त्रता' के लिए तैयार नहीं हैं उसका उपदेश देने में बड़ा खतरा है । उन्होंने कहीं कहा है कि भारतके अधिकांश लोगोंको भौतिक जीवनमें जिस वस्तुकी आवश्यकता है वह इच्छाओं और कर्मोंका त्याग नहीं बल्कि उनकी अभिवृद्धि करना और उनसे शिक्षा ग्रहण करना है और यदि वे निष्क्रिय रहे तो मन्दके-मन्द बने रहेंगे । इसका यह अर्थ नहीं है कि पाश्चात्य सभ्यताके सभी रूप भारतके लिए उपयुक्त हैं । मेरे मन में इस विषय में सन्देह नहीं है कि हम - ब्रिटेनवालों - - ने ब्रिटिश संस्थाओं को [ भारतमें ] अन्धाधुन्ध ढंगसे थोपनेकी कोशिश करके (यद्यपि पूर्ण सद्भावके साथ ) भूल की है; परन्तु पाश्चात्य आदशोंकी भारतको जरूरत है – अपने निजी आदर्शोंके स्थानपर ला बिठा लेनेके लिए नहीं बल्कि उन्हींमें परिष्कार और विकास करनेके लिए । मेरा खयाल है कि भारतका शासन भारतकी परिपाटीके अनुसार होना चाहिए ( शासनकी बागडोर भारतीय संभालें या अंग्रेज, यह सवाल दूसरा है) परन्तु 'सभ्यता' तो आवश्यक है और लाभप्रद भी । लेकिन यह तभी जब उसका विकास स्वाभाविक हो; लादा गया न हो; और इससे बचना सम्भव नहीं है ।

अब भारतीय प्रश्नोंको छोड़कर मैं आपके आदर्शोंके अपेक्षाकृत सामान्य प्रयोगपर आता हूँ ।

प्रथम तो यह कि मेरी रायमें 'निष्क्रिय प्रतिरोध' (पेसिव रेजिस्टेन्स) और ' अनवरोध' (नॉन- रेजिस्टेन्स) को समझनेमें आप गड़बड़ी कर रहे हैं । जिसे आप आत्मबल' या ' शान्तिमय विरोध' के नामसे पुकारते हैं उसका अपने-आपमें प्रेम अथवा आध्यात्मिकतासे कोई सम्बन्ध नहीं है । जब आप शारीरिक बल्के स्थानपर इन बातोंकी हिमायत करते हैं तब आप केवल संग्राम और हिंसाको शारीरिक धरातलसे उठाकर मानसिक धरातलपर ले आते हैं। आपके शस्त्र मानसिक और आत्मिक है न कि शारीरिक । परन्तु वे आध्यात्मिक भी नहीं हैं। आप अब भी विजयके लिए संघर्ष कर रहे हैं पहलेसे कहीं अधिक जोर लगा रहे हैं । मेरी राय में आधुनिक युगमें संघर्षका रुझान अधिकाधिक मान- सिकता और आत्मिकताकी ओर होता रहा है, और शारीरिक बलकी ओर कम । किन्तु ऐसा होनेके परिणामस्वरूप वह अधिक नैतिक या कम निर्दयतापूर्ण नहीं हो रहा है, वरन् उसके विपरीत ही है । इतना ही नहीं वह पहलेसे ज्यादा कारगर होता जा रहा है । शारीरिक या राजनीतिक उद्देश्योंकी उपा- देयता और अपने हेतुके न्याय सम्मत होनेपर मेरा चाहे जितना गहरा विश्वास क्यों न हो, इन उद्देश्योंकी प्राप्तिके लिए ' आत्मबल ' का प्रयोग करनेके औचित्यके सम्बन्धमें मुझे बहुत बड़ी शंका है । राजनैतिक जीवनमें मुझे प्रायः ऐसा करनेका मोह हो जाया करता है क्योंकि जैसा कि आप जानते हैं, राजनैतिक प्रश्नोंको मैं बहुत तीव्रता से लेता हूँ । यद्यपि यह सच है कि वाद-विवाद, तर्क और विचार-विमर्श के सभी सम्भव साधनोंको मैं निःसन्देह ठीक और जरूरी मानता हूँ तो भी मेरे खयालले भौतिक उद्देश्योंकी पूर्तिके लिए जिसे आप 'आत्मबल' कहते हैं उसका प्रयोग अत्यन्त भयावह है। मैं उस कथा को कभी नहीं भूल पाता जिसमें कहा गया है कि ईसा मसीहने पत्थरोंको रोटियों में बदलने जैसे एकदम निर्दोष और न्याय्य उद्देश्यके लिए 'आत्मबल 'का उपयोग करनेसे इनकार कर दिया था । मेरा खयाल है कि इस कहानीसे हमें एक बड़े गूढ़ सत्यका बोध होता है । यद्यपि मेरे विचारसे यह बहुत गलत है फिर भी यह निष्कर्षं नहीं निकलता कि जो लोग निस्वार्थं भावनासे प्रेरित होकर, गलत साधनोंसे ही सही, किसी अनुष्ठानमें ( वह चाहे जितना भ्रममूलक क्यों न हो ) लगे हुए हैं, उन्हें वह नैतिक और आध्यात्मिक लाभ नहीं मिलेगा जो प्रत्येक आत्मत्यागके फलस्वरूप मिला करता है। मुझे पूरा यकीन हैं कि आपको लाभ होगा और हो भी रहा है; परन्तु मेरी धारणा है कि यह सब आपके १. आत्मबलका भौतिक लाभके लिए उपयोग । - - और