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आप देख सकते हैं कि साधन अलग होनेसे परिणाम भी अलग होता है। सारे चोर ऐसा ही करेंगे, अथवा सभीमें आपके समान दयाभाव होगा, मैं इसके द्वारा ऐसा सिद्ध नहीं करना चाहता। इतना ही बताना चाहता हूँ कि अच्छा परिणाम उत्पन्न करनेके लिए अच्छा ही साधन होना चाहिए। और हमेशा नहीं तो ज्यादातर शस्त्र- बलकी अपेक्षा दयाका बल अधिक शक्तिशाली है। हथियारमें हानि है, दयामें कभी नहीं ।

अब अर्जीवाली बात लें। जिसके पीछे बल न हो, वह अर्जी निकम्मी है । यह बात बिलकुल पक्की है। फिर भी स्वर्गीय जस्टिस रानडे कहते थे कि प्रार्थना- पत्र लोगोंको शिक्षित करनेका साधन है। उसके द्वारा लोगोंको उनकी स्थितिका भान कराया जा सकता है और शासनकर्ताओंको चेतावनी दी जा सकती है। उस तरह सोचें, तो अर्जी निकम्मी चीज नहीं है। बराबरीका व्यक्ति प्रार्थनापत्र दे तो यह उसकी नम्रताकी निशानी कही जायेगी । गुलाम प्रार्थनापत्र दे, तो वह उसकी गुलामीका चिह्न होगा। जिस अर्जीके पीछे बल है वह बराबरीवालेकी अर्जी है और वह अपनी माँग प्रार्थनापत्रके रूपमें प्रस्तुत करता है, इससे उसकी कुलीनता प्रकट होती है।

अरजीके पीछे दो प्रकारकी शक्तियाँ होती हैं। एक तो, अगर नहीं दोगे तो हम तुम्हें मारेंगे " | यह गोला-बारूदका बल है । इसके खराब नतीजे हम देख आये हैं। दूसरा बल है, "अगर आप नहीं देंगे, तो हम आपके प्रार्थी नहीं रहेंगे। हम प्रार्थी रहेंगे, तो आप बादशाह बने रहेंगे । [ इसलिए ] हम आपके साथ कोई व्यवहार नहीं रखेंगे।" इस बलको दयाका बल कहो, आत्मबल कहो, चाहे सत्याग्रह कहो । यह बल अविनश्वर है और इस बलको बरतनेवाला अपनी स्थितिको ठीक-ठीक सम- झता है। हमारे बड़े-बूढ़ोंने इसी बातको एक कहावतके द्वारा कहा है: " 'एक 'नहीं' छत्तीस रोगोंको दूर करता है। जिनके पास यह बल है, उनके खिलाफ हथियार-बल टिक ही नहीं सकता ।

बच्चेके आगमें पाँव रखनेपर तो उसे रोकनेके उदाहरणकी छानबीन करें, तो आप हार जायेंगे । बच्चेके साथ आप क्या करेंगे ? मान लीजिए कि बच्चा आपके मुकाबलेमें इतनी ताकत लगा सके कि आपको ढकेलकर आगमें जा सके, तब तो आगमें पड़नेसे वह किसी भी तरह रुकेगा नहीं। इसका उपाय आपके पास है कि या तो आगमें जानेसे रोकनेके लिए आप उसके प्राण ले लें या उसका आगमें जाना आप बरदाश्त नहीं कर सकते, इसलिए आप अपनी जान दे दें। आप बच्चेका प्राण तो नहीं ही लेंगे। यदि आपके मनमें पूरा-पूरा दयाभाव न हो, तो यह सम्भव है कि आप अपने प्राण न दें । तब आप लाचार होकर बच्चेको आगमें जाने देंगे। अर्थात् आप बच्चेपर शस्त्र बलका प्रयोग नहीं करेंगे। अगर किसी और ढंगसे आप बच्चेको रोक सकेंगे तो रोकेंगे। किन्तु वह शस्त्र बलसे कम दरजेका होकर भी एक

१. महादेव गोविन्द रानडे (१८४२-१९०१), समाज-सुधारक, लेखक और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके संस्थापकोंमें से एक, देखिये खण्ड २, पृष्ठ ४२०-२१ ।

२. यह मूल गुजराती कहावतका शाब्दिक अनुवाद है । आशय है - " असहयोग सब प्रकारके अन्यायोंकी अचूक दवा है ।"

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