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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


होना भी मंजूर कर लेते।[१] यह घोषणा संसारको यह बताने के लिए की गई थी कि यह लड़ाई निःस्वार्थ भावसे, केवल एक आदर्श-- अर्थात् अपने राष्ट्रके सम्मानकी के लिए लड़ी जा रही है। ईसाका एक वचन है : “पहले ईश्वरकी सत्ता और उसकी पुण्य-सम्पदाके पात्र बनो। शेष सब तो उसके पीछे अपने-आप आ जायेगा।" इस वचनकी सत्यता जितनी अच्छी तरह इस समझौतेमें चरितार्थ हुई है उतनी शायद पहले कभी नहीं हुई होगी। किसी समय जनरल स्मट्स के बारेमें लोगोंका खयाल था कि उनकी एकमात्र इच्छा कौमकी माँगोंको तिरस्कारपूर्वक ठुकरा देना है। उस हालमें जिस त्यागका उल्लेख ऊपर किया गया है, शायद उसकी जरूरत हो जाती। परन्तु ईश्वरकी इच्छा कुछ और ही थी। जनरल स्मट्सने अपनी स्थितिपर पुनः विचार किया और आखिर सत्याग्रहियोंका सहयोग स्वीकार कर लिया। संसदके पिछले अधि- वेशनमें वे अपना कानून पास नहीं करा सके।[२] फिर भी, स्पष्ट ही, साम्राज्य परिषदके अधिवेशन तथा राजतिलकको निकट देखते हुए वे चाहते थे कि सत्याग्रह बन्द हो जाये । सत्याग्रहियोंने भी इस शर्त पर अपनी लड़ाई स्थगित करनेका प्रस्ताव सामने रखा कि जनरल स्मट्स उनकी मुख्य माँगें स्वीकार करके उन्हें संसदके अगले सूत्रमें कानूनी रूप दिला दे और सत्याग्रह आन्दोलनमें भाग लेनेके कारण सत्याग्रहियोंको दण्डित न करनेका वचन दें।[३] हम जो पत्र-व्यवहार[४] प्रकाशित कर रहे हैं, पाठक देखेंगे कि वह समझौतेका एक अनावश्यक और तात्कालिक अंग-मात्र होगा। समझौतेके इस भागके बारेमें भले ही कुछ अस्पष्टता और उलझन रह गई हो, किन्तु उसके मुख्य भाग, अर्थात् सन् १९०७ के कानून २ के रद किये जाने और ट्रान्सवालके वर्तमान प्रवासी कानूनमें संशोधन करनेके बारेमें कोई भ्रम या अनिश्चितता नहीं है।

परन्तु कई हल्कोंसे यह प्रश्न पूछा गया है कि क्या इस वचनका पालन होगा? साधारणतया इसमें कोई सन्देह नहीं होना चाहिए। जनरल स्मट्स एक जिम्मेवार मन्त्री हैं। उनके पीछे संसदका बहुमत है। उनकी सरकार उनके वचनके कारण सदनमें आवश्यक विधेयक[५] पेश करने के लिए बँधी हुई है। यदि संसद इसको मंजूर

  1. स्मट्स और भारतीय समाजके बीच हुए समझौतेके फलस्वरूप फरवरी १०, १९०८ की भारतीयोंका स्वेच्छया पंजीयन प्रारम्भ हुआ था; देखिए खण्ड ८, पृष्ठ ३९-४१, ४३-४४ । लेकिन बादमें भारतीयोंने स्मट्सपर समझौतेका अपना हिस्सा पूरा नहीं करनेका आरोप लगाया और ३० मईको फिरसे सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ करनेका निर्णय किया; देखिए खण्ड ८, पृष्ठ २६३-६४ । मई ९, १९०८ तक ट्रान्सवालके पूरी भारतीय आवादीमेसे -जो विभिन्न सूत्रोंके अनुसार ८,००० से लेकर १३,००० थी-८,७०० लोगोंने पंजीयनके लिए अर्जियाँ दी थीं। तात्पर्य उन भारतीयोंसे है जो किसी-न-किसी कारणसे मई ९ तक, जो पंजीयनकी अन्तिम तिथि थी, यहाँ अपना पंजीयन नहीं करा पाये थे।
  2. देखिए “ पत्र : एल० डब्ल्यू० रिचको", पृष्ठ ३८ तथा परिशिष्ट २।
  3. देखिए लेनके नाम लिखे गांधीजीके पत्र पृष्ठ ३९-४१, ४७-५० और परिशिष्ट ४।
  4. यह २७-५-१९११ के इंडियन ओपिनियनमें “ समझौता सम्पन्न : मन्त्री और श्री गांधीके बीचका अन्तिम पत्र-व्यवहार" शीर्षकसे छपा था।
  5. देखिए परिशिष्ट ४।