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आखिरकार!


नहीं करेगी तो उसका अर्थ होगा मन्त्रिमण्डलमें अविश्वास। फलस्वरूप मन्त्रिमण्डलको, जिसके वे कदाचित् सबसे अधिक महत्वपूर्ण सदस्य है, त्यागपत्र देना होगा, परन्तु हम स्वीकार कर सकते हैं कि, सम्भव है, एशियाइयोंके किसी सवालपर जनरल स्मट्स ऐसा बहादुराना कदम नहीं उठायें। फिर भी इस सुदूर आशंकाके भय-मात्रसे कि शायद संसद इस कानूनको अपनी मंजूरी न दे, हमें सुलहके लिए बढ़ाये गये हाथका तिरस्कार नहीं कर देना चाहिए। अबतक हमारा झगड़ा जनरल स्मट्ससे था। हमारी लक्ष्य-सिद्धिमें वे सबसे बड़े विघ्न थे। अब वे कुछ नरम पड़ गये हैं, और कुछ ही महीने पहले जो चीज किसी भी सूरतमें देनेसे उन्होंने इनकार कर दिया था उसीको देनेका वचन दे दिया है। इस स्थितिमें सत्याग्रहियोंका अपनी लड़ाईको स्थगित करनेका निर्णय ठीक ही हुआ है।[१] इससे जनरल स्मट्सके सम्मानकी कसौटी हो जायेगी। अबतक हमने जिस दृढ़ता, शान्ति और शानके साथ जनरल स्मट्सको मुकाबला किया है, उसी दृढ़ता, शान्ति, शान और निश्चित सफलताके विश्वासके साथ हम जरूरत पड़नेपर अगले वर्ष शक्तिशाली संघ-संसदका मुकाबला भी कर सकते है। सत्याग्रह एक महान् शक्ति है। और जिस प्रकार प्रकाश गहरेसे-गहरे अन्धकारका मुकाबला कर सकता है उसी प्रकार सत्याग्रह भी बड़ीसे-बड़ी विरोधी ताकतका मुकाबला कर सकता है। इसलिए जिनको भविष्यके बारेमें आशंकाएँ हो रही हैं, उन्होंने या तो सत्याग्रहको नहीं समझा है या ट्रान्सवालके सत्याग्रहियोंकी सचाई और सामर्थ्य में उनका विश्वास नहीं है।

परन्तु यदि विधानमण्डलने जनरल स्मट्सके वचनको पूरा कर दिया तो क्या सत्याग्रह हमेशाके लिए समाप्त हो जायेगा? इसका जवाब तो आम तौरपर संघ-सरकार और खास तौरपर जनरल स्मट्स, जिनके मातहत एशियाई विभाग है, ही दे सकते है। यदि जनरल स्मट्सके वचनका पालन किया गया तो जिस प्रश्नको लेकर सत्याग्रह शुरू किया गया था उस प्रश्नकी हद तक तो वह निःसन्देह बन्द हो जायेगा। परन्तु यदि इसी प्रकार एशियाइयोंके विरोधमें फिर कोई नया कानून बनाया गया और उससे उनके सम्मान अथवा कौमकी हस्तीपर आँ आई तो निश्चित कहा जा सकता है कि दक्षिण आफ्रिका एक बार फिर सत्याग्रहका नजारा देखेगा। जनरल स्मट्सने आखिर जिस सद्भावनाके साथ इस प्रश्नको सुलझानेका यत्न किया, उसे स्वीकार करके और उसकी कद्र करके ब्रिटिश भारतीय संघने उचित ही किया है। तो, अगर जनरल स्मट्सने अपनी स्थिति तथा अपनी इस कथित उक्तिपर पुनः विचार कर लिया है कि वे तबतक चैन नहीं लेंगे जबतक कि दक्षिण आफ्रिकामें एक भी एशियाई मौजूद है, और यदि भविष्यमें वे अपने व्यवहारमें उसी सद्भावनाका परिचय देना चाहते हैं जो उन्होंने (देरसे ही सही) सत्याग्रहियोंकी मांगोंके सम्बन्धमें

  1. यह निर्गय अत्रैल २७, १९११ को ब्रिटिश भारतीय संघको तत्वावधानमें आयोजित एक सभामें किया गया था; देखिए, “पत्र : ई० एफ० सी० लेनको", पृष्ठ ४७ तथा “ट्रान्सवालकी टिप्पणियों", पृष्ठ ५६-५८।