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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


निर्योग्यताओंमें पिसे जा रहे हों। बादशाहके प्रति अपनी वफादारी प्रकट करके तो हम केवल उपर्युक्त आदर्शोके प्रति अपनी भक्ति प्रकट करते हैं। हमारी वफादारी यही सूचित करती है कि हम हृदयसे इन आदर्शोको प्राप्त करना चाहते हैं।

ब्रिटिश संविधानकी खूबीका यही तकाजा है कि सम्राट्का प्रत्येक प्रजाजन किसी भी दूसरे प्रजाजनके समान स्वतन्त्र हो और यदि वह ऐसा नहीं है तो उसका कर्तव्य है कि वह इस स्वतन्त्रताकी मांग करे और इस बातका खयाल रखते हुए कि दूसरेको कोई हानि न पहुँचे, उसके लिए लड़े। इस संविधानमें भू-दासत्व और गुलामीके लिए कोई स्थान नहीं है, यद्यपि ये दोनों जोरोंसे प्रचलित हैं। परन्तु इसमें अधिकतर दोष स्वयं उन भूदासों और गुलामोंका है। ब्रिटिश संविधानके अन्दर ही आजादी प्राप्त करनेका एक बहुत अच्छा उपाय सुझाया गया है। परन्तु मानना पड़ता है कि उसका अमल आसान नहीं है। स्वाधीनताकी राह फूलोंसे भरी नहीं होती। ब्रिटिश कौम स्वयं इस स्थिति तक- -जिसे वह भूलसे स्वतन्त्रता कहती है और मुसीबतोंका सामना करने के बाद ही पहुँच सकी है। फिर भी वास्तविक स्वत-आत्माकी स्वतन्त्रता --- से तो वे अभी तक अनजान है। परन्तु इससे वंचित रहनेके लिए वे अपने संविधानको दोषी नहीं बताते - और न बता सकते हैं। इसी प्रकार हम भी अपनी निर्योग्यताओंके लिए उसे दोष नहीं दे सकते। और हमने तो क्या सच्ची क्या तथाकथित, किसी भी प्रकारको स्वतन्त्रताके लिए कभी अपना खून बहाया ही नहीं। परन्तु यदि हम ब्रिटिश संविधानको भावनाको समझ लें तो-- यद्यपि हम इस उपमहाद्वीपमें निर्योग्यताओंसे पीड़ित हैं और यद्यपि अपनी जन्मभूमिमें भी हम सुखसे कोसों दूर है -- हमें हृदयसे उद्घोष करना चाहिए-

सम्राट् चिरजीवी हों।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २४-६-१९११


९३. राज्याभिषेक

बादशाह जॉर्ज पंचमके राज्याभिषेकके अवसरपर उनके पूरे साम्राज्यमें उत्सव मनाया गया। उस समय इस देशके भारतीयोंने बधाईके तार भेजकर अपनी राजभक्ति प्रकट की। अब देखते हैं कि कुछ भारतीय सवाल उठाते हैं कि हम राजभक्ति किसके प्रति और किसलिए करें? हम उत्सवोंमें किस मुंहसे शामिल हों? इस देशमें हमारे ऊपर तो दुःखका पहाड़ टूट पड़ा है। हमारे अपने प्यारे देशमें भी हमारी दशा कुछ खुशियाँ मनाने योग्य नहीं है। बादशाह राज्याभिषेक-उत्सवके लिए भारत जायेंगे, इसमें भी हर्षित होनेकी कोई बात नहीं है। उत्सवमें केवल पानीकी तरह पैसा बहाया जायेगा। इससे भारतकी तो और भी बरबादी होगी। ऐसे विचार उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इनको छिपाकर रखना हानिकर है। इसलिए हमारा इन विचारों को न्यायकी कसौटीपर कस लेना ठीक होगा।